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डॉ. हरीश
तो किंवदंति भी है कि अपने अंतिम समय में जब वे बीमार पड़े तो कहीं पा जा नहीं सकते थे । दुखी होकर उस भक्त कवि ने गंगाजी की प्रार्थना की कि वे उनके अन्तिम समय में स्वयं चलकर एक अमृतमय स्पर्श दे दें; तो कहते हैं, भगवती-भागीरथी ने स्वय कवि के द्वार पर जाकर लहरों का पावन स्पर्श इस भक्त को देव उसका कल्याण कर दिया । इस दृष्टि से उन्हें शिव भक्त या शैव न कह कर गंगा का भक्त क्यों न कहा जाय ?
यों तुलसीदास जी ने अपनी कृतियों में अनेक देवताओं की स्तुति उपासना की है तो वे शैव, शाक्त, वैष्णव आदि सभी एक साथ क्यों नहीं हो गये ? कहीं ऐसा करने से भक्त का संप्रदाय और उपास्य बदल सकता है ? ऐसा कहना केवल एक खींचातानी मात्र होगी। वस्तुतः वे तुलसी की ही भांति अपने संप्रदाय के महान कवि थे।
इसके अतिरिक्त महाकवि तुलसीदास का महासुख प्राप्त करने का माध्यम शृगारिक नहीं था, वह सबका मन भावन था। जबकि हमारे पालोच्य कृति विद्यापति का माध्यम तो केवल मात्र शक्ति व शिव या राधाकृष्ण के हास-विलास, रति व अन्य लीलाओं का वर्णन प्रानन्द ही था। यही मार्ग उन्हें उचित जान पड़ा और परम्परा से यह मार्ग स्वीकार करने के लिए उन्हें बाध्य होना ही पड़ा । अन्यथा विद्यापति जैसा रस सिद्ध और प्रबुद्ध कवि क्या स्वयं अपने युग में इतना भी नहीं सोच सकता था कि पाने वाली पीढ़ियां उसको अपनी इन कृतियों पर क्या उपाधियाँ देगी और उसके पदों के क्या २ अर्थ लगाये जायेंगे। जान बूझकर कोई कवि अपने रचना विषयों को किस प्रकार अश्लीलत्व की आग में झोंक सकता है ? वस्तुत: वे स्वयं अपने वर्ण्य विषय को औचित्य की सीमाओं में प्रतिष्ठित और श्रेष्ठ मानते थे।
. ये सभी बातें विद्यापति की पदावली को ही लेकर उठीं और संभवत: विद्वानों ने अपना निर्णय भी उनके पदों पर ही दिया है, पर हम पालोचकों के सामने विनम्रता से इस बात को भी रखने का प्रयत्न करना चाहते हैं कि अभी विद्यापति के पदों का वैज्ञानिक और प्रामाणिक पाठ ही कहां उपलब्ध होता है ? इस ओर पाठ विज्ञान के संधाताओं को विशेष गंभीरता से सोचना चाहिये। नहीं तो विद्यापति के अप्रमाणिक, असम्पादित पदों से और भी न जाने कितनी भ्रान्तियां फैलाई जा सकती हैं।
विद्यापति का विशुद्ध भक्त के रूप में व्यक्तित्व प्रस्तुत करने की एक दृष्टि हमने प्रस्तुत की है । हमने अपनी बात कही है, इससे विद्वान असहमत भी हो सकते हैं, पर अध्ययन को अपनी दिशा और चिंतन में किसी मौलिक पहलू को लेकर अपनी बात कहने का हक तो सभी को है। पाठक यही समझ, इसे पढ़लें तो हम अपना श्रम कृत कार्य समझेंगे।
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