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जवाहिरलाल जैन
कुछ समय बाद जब यतिजी मालवे में चातुर्मास बिताने के विचार से यात्रा पर निकले तो किसन सिंह भी साथ हो लिया। रास्ते में वे चित्तौड़ में एक भोजक के यहां ठहरे। किसनसिंह यतिजी के साथ न जाकर वहीं रुक गया और खेती करने लगा। कुछ समय बाद वहां खाकी साधुनों की मंडली आई उस में अनेक युवक साधु भी थे जो नियमित रूप से अध्ययन करते थे। इस अध्ययन मंडल को देखकर किसनसिंह की अध्ययन-कामना फिर बलवान हुई और वह खेतीबाड़ी छोड़कर इस मंडली में शामिल हो गया। यहां उसने देखा कि इस मंडली में केवल युवक ही नहीं हैं, पर मुन्डित सिर वाली युवतियां भी हैं यद्यपि उनका अन्तर आसानी से मालूम नहीं पड़ता। रात में वे सब मांस-मदिरा और व्यभिचार में प्रवृत्त होते हैं । यह देखकर किसनसिंह ने वहां से निकल भागने का संकल्प किया और साधुवेष छोड़कर एक गृहस्थ से प्राप्त घोती कुर्ता पहन कर चुपचाप रात में निकल गया। वहां से वाणीन, देवगढ़-वारिया, रतलाम प्रादि घूमता हा वह बदनावर पा गया, जहां प्रातःकाल मंदिर में मांगलिक सुनाने का काम करने लगा।
बदनावर से १०-१५ कोस दूर दिग्ठाण में उन दिनों एक जैन साधु ने ६० दिन का उपवास किया था । जब उनका उपवास पूर्ण होकर पारणा हा तो किसनसिंह बदनावर के गृहस्थ के साथ उनके दर्शन
र भी किसनसिंह ने स्थानकवासी जैन साधुओं को देखा और उनके अध्ययन-अध्यापन के कार्यक्रम से प्रभावित हुआ। साधु मंडली भी इस युवक की प्रतिभा से प्रभावित हुई और उन्होंने इसे साधु दीक्षा देने का विचार किया। फलतः सं० १६५७ ई० की आश्विन शुक्ला १३ के दिन इस १५ वर्ष के वि सिंह को समारोह पूर्वक जैन धर्म में दीक्षित कर जैन साधु का वेष धारण करवा दिया गया। इस साधु जीवन की चर्या का अनुसरण किसनसिंह ने लगभग ७-८ वर्ष तक किया ।
अब भिक्षु किसनसिंह को स्थानकवासी जैन साधुओं की परिपाटी के अनुसार मूल सूत्रों का तथा
सार का अध्ययन करना था। साथ ही पौराणिक कथाए और व्याख्यान देने के लिए गद्य-पद्य के अनेक उद्धरण कण्ठस्थ करने थे। वे सब उसने दो ढाई साल में ही याद कर लिये और यह इस सारी कथा में निपुण होकर मालवा, खान्देश आदि में घूमता रहा और साधु वेष और चर्या का पालन करते हुए प्रवचन आदि का कार्यक्रम पूरा करता रहा, पर इस युवक की ज्ञान-पिपासा इतने से परम्परागत ज्ञान से शांत नहीं होती थी और ऐसा लगता था कि इन साधुनों का अध्ययन बहुत ही अपर्याप्त है। फिर जैन साधुनों में ज्ञान की अपेक्षा तपस्या की अधिक प्रतिष्ठा थी और वे साठ से अस्सी दिन के उपवास करते थे, जिससे उनके सम्मान में चार चांद लग जाते थे। किसनसिंह को यह सब अनुकुल नही लगता था, वह अपनी ख्याति विद्वत्ता और वक्तृत्व शक्ति के आधार पर ही मानता था और जब भी ऐसे नये साधु मिलते या नए ग्रन्थ मिलते, उनसे नवीन ज्ञान जानकारी प्राप्त करने का इसका सदैव प्रयास रहता था और जो ज्ञान मिलता उसे नोट कर लेता और कण्ठस्थ करने की इसकी रुचि रहती ।
सं० १९६० में किसनसिंह चातुर्मास बिताने के विचार से धार गया तो वहां एक दिन संयोग से भोज के विख्यात सरस्वती मंदिर को तोड़कर बनाई गई कमाल मौला की मस्जिद का गुम्बद ढह गया । इसमें से कुछ ऐसी शिलाए निकली जिन पर भोज के समय के कुछ पाठ्य ग्रन्थ खुदे हुए थे। सरकार के पुरातत्व विभाग ने उनका संग्रह किया । जब किसनसिंह ने यह बात सुनी तो वह भी उन्हें देखने पहुंचा। किसनसिंह उन्हें थोड़ा-थोड़ा पढ़ सका। उस समय विख्यात पुरातत्व वेत्ता श्री रा. गो. भांडारकर के सुपुत्र
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