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वागड़ के लोक साहित्य की एक झाँखी
और ओजस्वी वाणी का अनुपम उदाहरण है । बाँसवाड़ा के अन्तर्गत आज का तलवाड़ा गाँव प्राचीन काल में 'तलकपुर पाटण' नाम से विख्यात नगर था। यह चौहान वंश की राजधानी वर्तमान अधूणा नगर, शेष गाँव आदि से संलग्न विराट बस्ती थी। यहाँ राजा 'हामलदा' उर्फ सामंतसिंह का शासन था। हामलदा शूरवीर क्षत्रिय था। इसी से संबंधित शौर्य गाथा आज भी मौखिक रूप से वागड़ में गाई सुनी जाती है।।
_ 'गोविन्दगुरु' नामक एक संत तो पिछली शती में ही हुए माने जाते हैं। इन्होंने वागड़ के आदिवासी भीलों को भक्त बनाया और उन्हें हर प्रकार से सुधारने का महान् सामाजिक कार्य किया। उनसे संबंधित गीत व भजन भी आज वागड़ में और खासकर आदिवासी भीलों में काफी लोकप्रिय हैं।
'कलोजी' नामक एक वीर क्षत्रिय की वाणी भी गायी जाती है। लोक कथा भी व्यापक है। मैंने इसको अंकित भी किया है । 'बलतों वेलणियों' नामक एक वीर क्षत्रिय लड़ता हुअा वीरगति को प्राप्त हुआ। उसकी भी वीर-करुण रस की काव्य-कथा सुश्रुत है ।
रामदेवजी तथा भाटी हिरजी के भजन भी लोक साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं।
योगीराज मावजी के अतिरिक्त उनके शिष्य-भक्त जीवण, सुरानद, जनपुरुष, दासजेता, दासमकन उदयानंद तथा नित्यानंद महाराज आदि के भजन व प्रारतियां भी माव संप्रदाय में व्यापक व लोकों में प्रिय हैं।
गोरख, मोरा, चंद्रसखी, हरवण कावेड़ियो (श्रवणकुमार), गोपीचंद-भरतरी आदि के भजन भी अति व्यापक हैं । तोल राणी का भजन स्त्रियों को बहुत प्रिय है ।
___ मकोनी वात, विजु (बिजली) नी वात एवं अन्य लघु कथाएं तथा चंदन मलयागिरी की वार्ता, शीतला सप्तमी की वार्ता तथा अन्य धार्मिक एवं व्रतादि संबंधी वार्ताएं भी बहु प्रचलित हैं। इन्होंने भडली-वाणी तथा भविष्यवाणियाँ भी हैं।
यह सब लोक-संबंधी है और लोक साहित्य का भागस्वरूप है। परंतु आज तक इस समग्र सामग्री का संग्रह, संपादन तथा प्रकाशन नहीं हुआ है । यह साहित्य निधि मौखिक होने से घट-बढ़ भी होती रहती है। मैंने अपना शोध कार्य करते हुए काफी संचय यथा संभव किया है । दैवयोग होगा तो कुछ प्रकाशन भी होगा परन्तु कुछ झांखी सादर प्रस्तुत करता हूँ।
(१) "गलालेंग" वागड़ की यह ऐतिहासिक वीर-गाथा अप्रकाशित है। परन्तु लगभग २७५ वर्षों से यह प्रेम और शौर्य का अनुपम उदाहरण रूप लोक-जीवन में व्याप्त है । मेवाड़ के वृहत् इतिहास वीर विनोद में इसका अल्प उल्लेख हुआ है परंतु प्राप्य मूल कथा के आधार पर अपने शोध कार्य में मुझे इसकी कड़ियां प्राप्त हुई हैं । काव्यारम्भ यों होता है
"लालसेंग ना सवा गला लेंग तारु, धरति मोगु नामे जिय।
पुरबिया पुरबगड़ ना राजा तमें प्रांसलगड़ ना राणाए जियः" गलालेंग पूर्विया राजपूत लालसिंह का ज्येष्ठ पुत्र था । वह पूर्वगढ या प्राँसलगढ़ का राजा था। इतिहास में उस समय मेवाड़ में महाराणा जयसिंह का तथा डूंगरपुर में महारावल रामसिंह का शासनकाल था। इतिहासकार के अनुसार ढेबर की नींव वि० सं० १७४४ में तथा उसकी प्रतिष्ठा १७४८ में
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