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दान-पन
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के रूप में वर्णित है । ब्रह्मगुप्त भिल्लमाल प्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध है। यही नगर माघ और उसके वंशजों का अधिष्ठान था। यहीं 'उपमितिभवप्रवञ्चाकथा' का प्रणयन था हुा । इस नगर से विनिर्गत श्रीमाली ब्राह्मण अब भी अपनी कर्मनिष्ठा के लिए प्रसिद्ध हैं । संवत् १०५४ में इसी गोविन्द के पुत्र नन्नुक को सत्यपुरीय पथक में एक ग्राम दान में मिला था। इसका उल्लेख राष्ट्रीय संग्रहालय के एक दूसरे अभिलेख में है जिसका सम्पादन भी इस टिप्पणी के लेखक ने किया है।
दानपत्र का सम्पादन ताम्रपत्रों के फोटो के आधार पर किया गया है। फोटो इस ग्रन्थ में इसी लेख के साथ प्रकाशित है।
लेख का अक्षरान्तर
पहला ताम्रपत्र १. ओं स्वस्ति राजहंस इव विमलोमयपक्ष : महाराजाधिराज-श्री२. दुर्लभराजपादपद्मोपजीवी तन्त्रपाल श्री क्षेमराजः स्वभुज्यमान३. श्री भिल्लमालमंडलान्तः पाति क्षं (क्ष) त्रियपद्ग्रामे समुपगतान् सर्वानेव ४. राजपुरुषान् वा (वा) ह्मणोत्तरान् प्रतिनिवासिनो जनपदानन्यांश्च वो (बो) धय५. त्यस्तु वो संविदितं यथास्मामिः सौमग्रहणे स्नात्वा त्रिलोकीगुरु महा६. देवमभ्यर्च्य मं (म) तकरिकर्णचंचलामभिवीक्ष्य लक्ष्मी गिरिनदीवे७. गोपम यौवनं त्रि (तृ) णदलगतजल वि (बि) द्वालोलभ जीवितमव८. लोवय चायं क्षं (क्ष) त्रियपद्ग्रामः स्वसीमापर्यन्तः सकाष्ठ त्रि (तृ) णपूर्ति६. गोचरपर्यन्तः सभागभोगः सौपरिकरः सदंडदशापराधः पूर्व१०. दत्तदेवदाय व (ब्र) ह्यदायवः (व) जः वा (ब्रा) ह्मणनन्नकाय
दूसरा ताम्रपत्र ११. गोविंदसूनवे वाजिमाध्यंदिन सव (ब) ह्मचारिणे त्रिप्रवरा१२. य लौड्य (लाट्या) यनसगोत्राय श्री भिल्लमालवास्तव्याय मातापित्रोरात्म१३. नश्च पुण्ययशोभिवृद्धय परलोकफलमंगीकृत्य चंद्रांकण्णि१४. वक्षितिसमकालीनतया शासननौदकपूर्व परया भक्तया १५. प्रतिपादितो विदित्वास्मद्वंशजैरन्यश्च भाविभोक्तृभिरनु१६. पालनीयः ।। उक्त च । व (ब) हुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः १७. यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं ॥ विध्याटवीष्वतो१८. यासु शुष्ककोटरवासिनः कृष्णसर्पाः प्रजायंते व (ब) ह्मदाया१६. पहारकाः ।। संवत् १०६७ माघ शुदि १५ श्री दुर्लभराजा नुयं (नुमतं) २०. दत्तं स्वहस्तं च ।
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