________________
कबीर और मरण-तत्व
जन्म-मरण के सम्बन्ध में कही हई कबीर की निम्नलिखित उक्ति को रवि बाबू ने बड़ी चमत्कारपूर्ण कहा था
"जनम प्रो मररण बीच देख अन्तर नहीं दच्छ औ बाम यू एक प्राही।
कहे कबीर या संन गूगा तई वेद प्रौ कातेब को गम्य नाहीं ॥ हिन्दी-साहित्य में भी कामायनी के मनु ने "मृत्यु परी चिर-निद्र! तेरा अंक हिमानी-सा शीतल" कह कर मृत्यु के सम्बन्ध में अपने उद्गार प्रकट किये थे। श्रीमती महादेवी वर्मा ने भी "अमरता है जीवन का ह्रास, मृत्यु जीवन का चरम विकास" द्वारा मृत्यु का जय जयकार ही किया है। यदि पंतजी के शब्दों में "जीवन-नौका का विहार चिर जन्म-मरण के पारपार" है तो मृत्यु पूर्ण विराम भले ही न हो, वह नवीन प्रस्थान के लिए आवश्यक विराम तो है ही।
एक बार किसी ने काका कालेलकर से पूछा कि भगवान ने अगर मृत्यु छीन ली और आपको अजर-अमर बना दिया तो आप क्या करेंगे? यह सुन कर उन्होंने उत्तर दिया, "इस जीवन का अन्त होते वाला नहीं है, ऐसा डर अगर मेरे मन में छा गया तो मैं इतना घबरा जाऊंगा कि उस संकट से बचने के लिए मैं प्रात्म-हत्या ही करूंगा। मैं तो मानता हूँ कि खुदा की अगणित न्यामतों में सबसे श्रेष्ठ है मौत । मैं नहीं मानता कि परम दयालू परमात्मा मरने के हमारे अधिकार से हमें नंचित करेगा।"x
___ ऊपर के उद्धरणों से स्पष्ट है कि आधुनिक युग में ऐसे कवि और विचारक तो हुए हैं जिन्होंने मृत्यु को वरदान के रूप में ग्रहण किया है किन्तु जिस मरण को उन्होंने वरदान के रूप में देखा है, वह मरण कबीर आदि निर्गुण सन्तों द्वारा निरूपित मरण नहीं है। कबीर तथा अन्य सन्तों द्वारा विवेचित मरण-तत्व एक प्रकार से प्रतीकात्मक है और अपने ढंग का अनूठा मरण है जिसमें शरीर का मरण नहीं होता, मरण होता है भौतिक वासनात्रों का और व्यक्ति के क्षुद्र संकुचित अहम् का। *
xमीच सचमुच है मीत (मंगल प्रभात, १ अप्रैल, १९६५)
* हिन्दी के यशस्वी कवि श्री सुमित्रानन्दन पन्त ने अवश्य अपनी 'छाया' शीर्षक कविता में प्रकारान्तर से कबीर तथा अन्य संतों द्वारा निरूपित मरण से मिलते-जुलते विचार प्रकट किये हैं। छाया के प्रति निम्नलिखित कथन में:
हां सखि ! प्रानो बांह खोल हम लग कर गले जुड़ालें प्रारण ..
. फिर तम तम में मैं प्रियतम में, हो जावे व्रत अंतर्धान । छाया रूप सखी से अभिप्राय छायारूप जगत से ही है जिसे कवि (आध्यात्मिक जगत में प्रवेश से पहले) प्यार कर लेना चाहता है क्योंकि आत्मा के प्रियतम में मिल जाने के बाद फिर छाया से मिलना कहां होगा ? यहां भी ऐसा नहीं लगता कि शारीरिक मरण होने पर ही प्रियतम से मिलने की बात कही जा रही है। फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि मरणतत्वविषयक संत-शैली और पंत-शैली में पर्याप्त अन्तर है । एक में जहां मरणोल्लास की अभिव्यक्ति हुई है तो दूसरी में प्रियतम से मिलन के पूर्व भौतिक जगत् के आकर्षणजन्य मोह को वाणी दी गई है।
-लेखक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org