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कबीर और मरण-तत्व
विरह की स्थिति है, यह दार्शनिक सिद्धान्त था। जब इस विरह की वेदनाओं का वर्णन कल्पना की भाषा में किया जाने लगा, साधक इस विरह की समाप्ति के लिए बेचैन हो उठे और उसके अनेक मार्गों में से एक मार्ग उन्हें मृत्यु में भी दिखाई देने लगा। x
___ आगे चलकर मध्ययुगीन राजस्थानी साहित्य में अवश्य ही मरण का महोत्सव के रूप में चित्रण किया गया जिससे "मरण-त्यौहार" राजस्थानी का एक कहावतो पदांश ही बन गया । जो मध्ययुगीन योद्धा देश तथा धर्म की रक्षा के लिए युद्ध-भूमि में अपने प्राणों को न्योछावर कर देते थे, उनका विश्वास था कि इसके परिणाम स्वरूप वे अप्सराओं के साथ स्वर्ग-सुख का उपभोग करेंगे। महाभारत में भी इस प्रकार के योद्धा को "सूर्य मंडल भेदी" की संज्ञा दी गई है :---
द्वाविमौ पुरुषो लोके सूर्यमण्डल भेदिनी ।
परिवाड योगयुक्तश्च रणो यश्चामुखे हतः ।। प्रसाद के “चन्द्रगुप्त" नाटक की अलका के निम्नलिखित उद्बोधन में भी उक्त विश्वास की ही अभिव्यक्ति हुई है :
"भाई ! तक्षशिला मेरी नहीं और तुम्हारी भी नहीं ; तक्षशिला आर्यावर्त का एक भू-भाग है ; वह आर्यावर्त की होकर ही रहे, इसके लिए मर मिटो। फिर उसके कणों में तुम्हारा ही नाम अंकित होगा। मेरे पिता स्वर्ग में इन्द्र से प्रतिस्पर्धा करेंगे। वहां की अप्सराए विजयमाला लेकर खड़ी होंगी, सूर्यमण्डल मार्ग बनेगा और उज्ज्वल प्रालोक से मण्डित होकर गांधार का राजकुल अमर हो जायगा।"
गीता में भी इस प्रकार के युद्ध को "स्वर्गद्वारमपावृतम्"-खुला हुआ स्वर्गद्वार कहा गया है । किन्तु कबीर आदि सन्तों ने अनेक उल्लासोक्तियों द्वारा जिस मरण को काम्य ठहराया है, वह अवश्य ही उपरोक्त युद्धजन्यमरण से भिन्न है । इस सम्बन्ध में गोरखनाथ की एक उक्ति लीजिए :
"मरौ वे जोगी मरौ, मरण है मीठा ।
तिस मरणीं मरौ, जिस मरणों गौरख मरि दीठा ॥ अर्थात् हे जोगी ! मरो, मरना मीठा होता है । किन्तु वह मौत मरो जिस मौत से मरकर गोरखनाथ ने परमतत्व के दर्शन किये । प्रश्न यह है कि वह मरण कौनसा है जिसके द्वारा परमतत्व के दर्शन होने से मरण का ही मरण हो जाता है ?
ऊपर "सबद-बाण" के चलाने से शिष्य की मरण-दशा का उल्लेख किया गया है । गोरखनाथ ने भी मुसलमान काजी को समझाते हुए कहा था कि मुहम्मद के हाथ में जो तलवार थी, वह लोहे या फौलाद की बनी हुई नहीं थी, वह प्रेम अथवा "सबद" की तलवार थी:
महमद महमद न कर काजी, महमद का विषम विचारं ।
महमद हाथि करद जे होती, लोहे गढ़ी न सारं ।। x साहित्य और भाषा पर इस्लाम का प्रभाव (श्री रामधारी सिंह दिनकर) परिषद्-पत्रिका, वर्ष-२, अंक-२, पृ० ३३-३५ ।
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