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(संपादकीय
प्रव्रज्या, दीक्षा, चारित्र तथा संयम ये जैन दीक्षा के ही पर्यायवाची शब्द हैं। सामान्य जग-जीवन से ऊपर उठना तथा आत्मा से महान् आत्मा की ओर अग्रसर होना ही जैन भागवती दीक्षा है। श्रामण्य दीक्षा केवल वेशभूषा परिवर्तन ही नहीं है अपितु आत्मा का कायाकल्प भी है। असम्यक् से सम्यक् की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर लौटना अभिनिष्क्रमण/दीक्षा है। जीवन का सम्यक् प्रकारेण आमूलचूल परिवर्तन ही संयम की धवल गाथा का द्योतक है। दीक्षा अच्छे वस्त्र पहनना, विशाल भव्यातिभव्य भवनों में रहना, रुच्यानुसार स्वादिष्ट भोजन करना, लोगों को उच्चासन पर बैठकर उपदेश देना, भक्तगणों से पूजित-वंदित होना, प्रान्तों में घूमना ही नहीं है। दीक्षा तो जीवन की सर्वोच्च शिक्षा है, सर्वश्रेष्ठ पद है, आत्मा को परमात्म तत्त्व तक पहुँचाने का उपक्रम है, मुक्तिमार्ग का सोपान है, अप्रमत्त रहकर धर्मजागरण करना, करवाना है। पंचेन्द्रियों तथा तीनों गुप्तियों का निग्रह करना, पंच महाव्रत, पंच समिति, इस प्रकार के श्रमण धर्म का पालन करना, विवेक से कार्य निष्पत्ति, जिन आज्ञा में रहते हुए आत्म रमणता में प्रवृत रहना, स्व-दोष खोजना तथा 'स्व' को 'स्व' में ढूंढना ही दीक्षा है।
जो पंचेन्द्रयों के निग्रह में 'श्रम-ण' श्रम नहीं करना वह वस्तुतः श्रमण नहीं है। जो सांसारिक श्रम नहीं करके केवल मोक्ष तत्व की प्राप्ति हेतु श्रम करता है, वही सच्चा श्रमण है। श्रमण की वेशभूषा श्वेतांवर है जो स्वच्छता, शुद्धता, निर्मलता, शुचिता, पवित्रता की द्योतक है। साधु को 'द्विज' भी कहते हैं। एक बार माता के उदर से जन्म लेता है तथा दूसरी बार साधु-संस्कारों से जीवन संस्कारित होने के कारण जन्म लेता है। साधु निग्रंथ होते हैं अर्थात् ग्रंथि/छल-कपट राग-द्वेष रहित।
___ जो साधक भगवान् महावीर के उपदेशानुसार जिनधर्मालोक से अपना जीवन आलोकित करता है वही सच्चा संयमी, श्रमण, निर्ग्रन्थ और अणगार है। आज के भौतिकवादी युग में इस पवित्र वेशभूषा की आड़ में कतिपय तथाकथित साधु इसी पवित्र वेष और मर्यादाओं को लज्जित कर रहे हैं-अपने दुराचरण, दुराग्रह तथा पाखंड से। यह सोचनीय, गंभीर एवं ज्वलंत प्रश्न है - धर्म संघों के समक्ष । कथनी-करणी में एकरूपता का नितांत अभाव भी हमें एवं समाज को सोचने-समझने को बाध्य कर रहा है। अस्तु।
‘प्रव्रज्या' की व्याख्या इसलिए करनी पड़ रही है कि पं. रल. विद्वद्वर्य श्रमण संघीय सलाहकार एवं मंत्री परम श्रद्धेय श्री सुमनकुमारजी महाराज का पचासवां प्रव्रज्या दिवस आसोज शुक्ला त्रयोदशी वि.सं. २०५६ तदनुसार दि. २२ अक्टूबर १६६६ की पुनीत वेला में श्री एस.एस. जैन संघ, माम्बलम्, चेन्नई द्वारा समायोजित है। संघ में आपके वर्षावास से उत्साह है। अनेक जन्म-दिवसों, दीक्षा-प्रसंगों, पुण्य-तिथियों के क्रम में आपका दीक्षा-दिवस भी समुपस्थित हो गया जो अत्यधिक महत्त्वपूर्ण दिवस है।
इस पावन प्रसंग पर साधना का महायात्री : प्रज्ञामहर्षि श्री सुमनमुनि ग्रंथ का प्रकाशन होना एक सुखद स्मृति को स्थायित्व देना तथा जन-जन तक आपकी जीवन-सुरभि को पहुँचाने का उपक्रम मात्र है।
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