________________
साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
आज जैन विद्या के सम्यक् स्वरूप को प्रचारित- औगुन छाँडे, गुन गहे, मन हरि-पद माहीं।। प्रसारित करने की नितांत आवश्यकता है। आपने हमारे | निर्बेरी सब आतमा, परमातम जानै संस्थान द्वारा स्थापित आवासीय जैन विद्याश्रम की योजना सुखदायी, समता गहै, आपा नहीं आने । को भी सराहा तथा बच्चों में जैन संस्कार देने की बलवति आपा पर-अंतर नहीं, निर्मल निज सारा; प्रेरणा दी।
सतवादी साँचा कहै, लौलीन बिचारा।। - इस पावन प्रसंग पर मैं महान् संत रल श्रमण संघीय
निर्भय भजि न्यारा रहै, काहू लिपत न होई; सलाहकार एवं मंत्री पूज्य श्री सुमन मुनिजी के प्रति
'दादू' सब संसार में, ऐसा जन कोई। जैनविया अनुसंधान प्रतिष्ठान एवं जैन विद्याश्रम के सभी उन्होंने कहा कि साधुओं में शिरोमणि संत उसे कहते कार्यकर्ताओं, अध्यापकों, शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों की हैं जोओर से श्रद्धा भाव एवं कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। आप
१. सदा ईश्वर का गुणगान करता है, दीर्घ काल तक स्वस्थ रहकर इसी प्रकार जन-जन में श्रमण भगवान महावीर की अमृतमय वाणी का प्रचार
२. प्रभु को भजता है, विषयों का परित्याग करता है, प्रसार करते रहें। इसी सत्कामना के साथ - जय गुरुदेव!
३. अहंकार को जिसने नष्ट कर दिया है, 9 एस. कृष्णचंद चोरड़िया, ४. जो कभी मुख से असत्य नहीं बोलता,
प्रधान सचिव, ५. जो कभी दूसरों की निंदा नहीं करता, जैन विद्या अनुसंधान प्रतिष्ठान, चेन्नई.
६. दूसरों के दुर्गुणों पर जिसकी दृष्टि नहीं जाती और
जो केवल गुणों को ही ग्रहण करता है, प्रज्ञा महर्षि
७. जिसका मन सदैव प्रभु के चरणों में निमग्न रहता है, | श्री सुमन मुनिजी महाराज ५. जिसका किसी भी प्राणी से वैर भाव नहीं है तथा जो
प्रत्येक की आत्मा को परमात्मा के समान समझता है, शिरोमणि संत
६. जो सब को सुख पहुंचाता है, हिन्दी के संत-साहित्य में महान् संत दादूदयाल का १०. जो सर्वत्र समदृष्टि रखता है, बड़ा ही गौरवपूर्ण स्थान है। एक बार संतों की सभा में
११. अपने अहंकार का जिसने विस्मरण कर दिया है, उनसे पूछा गया कि आप सच्चा संत किसे मानते हैं? दादूदयालजी ने उस समय जो उत्तर दिया वह बड़ा
१२. जिसका पूरा जीवन विकार रहित है, मार्मिक है। उन्होंने कहा
१३. जो सदा सत्य बोलता है, "सोई साधु-सिरोमणी, प्रभुवर गुण गावै,
१४. जो सदैव अपने आत्म-स्वरूप में लीन रहता है, ईस भजै, विषया तजै, आपा न जनावै । १५. जो सदा भय से रहित है और मिथ्या मुख बोले नहीं, परनिंदा नाहीं;
१६. जो किसी भी प्रकार के विषय-भोग में लिप्त नहीं
३४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org