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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि नहीं रह सकते। धर्म निरपेक्षता का अर्थ मात्र इतना ही हो की गाड़ी भी नहीं चल सकती है। अतः भौतिक ज्ञान के कि राज्य किसी विशेष धर्म का प्रचार नहीं करे, तब तक साथ आध्यात्मिक ज्ञान भी आवश्यक है। भगवान महावीर तो ठीक है, लेकिन इसका अर्थ धर्म से विमुख हो जाना के जीवन संदेश पर प्रकाश डालते हुए आचार्य विनोबा कदापि नहीं है। हमारे देश में प्राचीन काल से ही तीन भावे (जो सर्वोदय के प्रणेता तथा महान् शिक्षा शास्त्री थे) धर्मों की धाराएं मुख्य रूप से प्रवहमान है - वैदिक धर्म, ने कहा कि जीवन में शांति प्राप्त करने का एक महान् सूत्र जैन धर्म और बौद्ध धर्म । बाद में सिक्ख धर्म भी प्रारम्भ महावीर ने दिया था। वह सूत्र है - “अहिंसा + विज्ञान = हुआ। इन चारों धाराओं ने कुछ ऐसे नैतिक व आध्यात्मिक मानव जाति का उत्थान तथा अहिंसा - विज्ञान = मानव मूल्य स्थापित किये, जिन्हें सनातन जीवन-मूल्य कह सकते जाति का विध्वंश ।” कहने का अर्थ है कि हमारे यहाँ पर हैं और वे प्रत्येक मानव पर लागू होते हैं। उनका हमारी भौतिक ज्ञान की अवहेलना, उपेक्षा नहीं की गई किन्तु शिक्षा प्रणाली में विनियोजन होना अत्यावश्यक है। उसके साथ आध्यात्मिक ज्ञान को भी अपनाने पर जोर दिया गया। भौतिक व आध्यात्मिक ज्ञान का समन्वय जैन आचार्यों ने शिक्षा के स्वरूप की व्याख्या करते । प्राचीन आचार्यों ने विद्या का स्वरूप बताते हुए कहा हुए अध्यात्म विद्या पर बहुत जोर दिया और उसे महाविद्या है- “सा विद्या या विमुक्तये" अर्थात् विद्या वह है जो हमें की संज्ञा प्रदान की। ऋषिभाषित सूत्र में आया हैविमुक्त करती है। विद्या किस चीज से विमुक्त करती है, तो कहा गया कि हममें जो तनाव की स्थिति है, दुःख की "इमा विज्जा महाविज्जा, सव्वविज्जाण उत्तमा। स्थिति है, आकुलता और व्याकुलता है, वे सब चाहे जं विजं साहित्ताणं, सबदुक्खाण मुच्चती।। शारीरिक स्तर पर हों या मानसिक स्तर पर, उनसे मुक्त जेण बन्धं च मोक्खं च, जीवाणं गतिरागति। करानेवाला साधन विद्या ही है। जैन भावना के अनुसार आयाभावं च जाणाति, सा विज्जा दुक्खमोयणी।।" हम कह सकते हैं कि हमें तृष्णा से, अहंकार से, राग और __अर्थात् वही विद्या महाविद्या है और सभी विद्याओं द्वेष से मुक्ति चाहिए। इसलिए हमारे देश के ऋषियों, में उत्तम है, जिसकी साधना करने से समस्त दुःखों से मुनियों और आचार्यों ने सहस्रों वर्षों से विद्या के सही मुक्ति प्राप्त होती है। जिस विद्या से बंध और मोक्ष का, संस्कारों का सारे देश में प्रचार-प्रसार किया। ये संस्कार । जीवों की गति और अगति का ज्ञान होता है तथा जिससे इस देश की संपदा हैं तथा अनमोल धरोहर हैं। प्राचीन आत्मा के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार होता है, वही विद्या काल में विद्या के दो भेद कहे गये - विद्या और अविद्या। सम्पूर्ण दुःखों को दूर करनेवाली है। अविद्या का अर्थ अज्ञान नहीं है, अविद्या का अर्थ है भौतिक ज्ञान और विद्या का अर्थ है आध्यात्मिक ज्ञान। प्राचीन ज्ञान का नवीन प्रस्तुतिकरण जिस प्रकार से एक स्कूटर दो पहियों के बिना नहीं चल आधुनिक युग में स्वामी विवेकानंद ने प्राचीन शिक्षा सकता है, वैसे ही विद्या - आध्यात्मिक ज्ञान और पद्धति का नवीनीकरण प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अविद्या-भौतिक ज्ञान दोनों का संयोग नहीं हो तो जीवन शिक्षा मात्र उन सूचनाओं का संग्रह नहीं है जो ढूंस-ठूस कर १. इसिभासियाई सूत्र-१७/१-२ १८४ जैनागम में भारतीय शिक्षा के मूल्य | | १८४ Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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