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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
०६. वही २/५/११० पृष्ठ. १०८ ०७. वही २/५/११० पृष्ठ. १०६ ०८. पालि अंगुत्तर निकाय चतुष्कनिपात महावग्गो वप्पसुत्त ४-२०-५ ०६. क. मज्झिमनिकाय महासिंहनाद सुत्त १/१/२, दीघनिकाय पासादिकसुत्त
ख. पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म पृष्ठ. २४ १०. मज्झिमनिकाय महासिंहनाद सुत्त १/१/२, धर्मानन्द कौशाम्बी भ.बुद्ध पृष्ठ.६५-६६ ११. सिरिपासणाहतित्थे सरयूतीरे पलासणयरत्थी।
पिहियासवस्स सिस्सो महासुदो वड्ढकित्तिमुणी।।... स्तबरं धरित्ता पवट्टिय तेण एयतं ।। दर्शनसार श्लोक ६-८ १२. आगम और त्रिपिटकः एक अनुशीलन पृष्ठ. २
- जैनदर्शन, साहित्य, इतिहास एवं संस्कृति के संवर्द्धन, संरक्षण एवं प्रचार-प्रसार में सदैव तत्पर डॉ. श्री फूलचन्दजी जैन ‘प्रेमी' का जन्म १२ जुलाई १६४८ को दलपतपुर ग्राम (सागर - म.प्र.) में हुआ। प्रारंभिक शिक्षोपरांत आपने जैनधर्म विशारद, सिद्धान्त शास्त्री, साहित्याचार्य, एम.ए. एवं शास्त्राचार्य की परीक्षाएं दी। “मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन" विषय पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा पी.एच.डी. की उपाधि से विभूषित डॉ. प्रेमी जी को कई पुरस्कारों से आज दिन तक सम्मानित किया गया है।
जैन जगत् के मूर्धन्य विद्वान् डॉ. प्रेमी ने अनेक कृतियों का लेखन-संपादन करके जैन साहित्य में श्री वृद्धि की है। अनेक शोधपरक निबंध जैन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित! राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में जैनदर्शन विषयक व्याख्यान ! 'जैन रत्न' की उपाधि से विभूषित डॉ. प्रेमी जी सरलमना एवं सहृदयी सज्जन है।
-सम्पादक
कर्म क्या है ? मन-वाणी और शरीर द्वारा शुभ-अशुभ, स्पन्दना का होना तथा क्रोधादि संक्लेश भावों से कार्य करना उससे आत्मप्रदेशों पर कर्माणुओं का संग्रह होना कर्म है। उसका कालान्तर में जागृत होना कर्मफल का भोग है। किया हुआ व्यर्थ नहीं जाता वह फलवान होता है। आदमी के चाहने न चाहने, मानने न मानने से कोई अन्तर नहीं पड़ता।
जब अपने पर ही भरोसा नहीं है तो फिर परमात्मा पर भरोसा कैसे आयेगा? फिर संभ्रान्त, दिशाविमूढ़ की भाँति इतस्ततः संसार में भटकते रहोगे। इसलिए आत्मा पर विश्वास होना अति आवश्यक है।
आत्मा का अस्तित्व है तो वहाँ पर लोक का अस्तित्व है, लोक है तो वहाँ कर्म का अस्तित्व है, कर्म है वहाँ क्रिया भी है।
-सुमन वचनामृत
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तीर्थंकर पार्श्वनाथ का लोकव्यापी व्यक्तित्व और चिन्तन
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