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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
ऐसे ध्यानी प्राणी का मन आत्मा के ज्योतिर्मय - स्वभाव से हट कर सांसारिक वस्तुओं में केन्द्रित होता है । उसी में तन्मय बन जाता है।
२. रौद्र ध्यान – इस ध्यान में जीव सभी प्रकार के पापाचार करने में समुद्यत होता है। क्रूर या कठोर भाव वाले प्राणी को रुद्र कहते हैं वह निर्दयी बन कर क्रूर कार्यों का कर्ता बनता है इसलिये उसे रौद्र ध्यान कहते हैं। इस ध्यान के चार प्रकार हैं। वे ये हैं -
१. हिंसानुबन्धी – निरन्तर हिंसक प्रवृत्ति में तन्मयता कराने . वाली चित्त की एकाग्रता। .. २. मृषानुबन्धी - असत्य भाषण सम्बन्धी एकाग्रता।
३. स्तेनानुबन्धी – चोरी करने -कराने सम्बन्धी एकाग्रता । ४. संरक्षणानुबन्धी - परिग्रह के अर्जन एवं संरक्षण सम्बन्धी
तन्मयता।
रौद्र ध्यान के चार लक्षण हैं, उनका स्वरूप इस प्रकार है। १. उत्सन्न दोष – हिंसादि किसी एक पाप में निरन्तर
प्रवृत्ति करना। २. बहुदोष – हिंसादि सभी पापों के करने में संलग्न
रहना। ३. अज्ञान दोष – कुशास्त्रों के संस्कार से हिंसादि अधार्मिक
कार्यों को धर्म मानना। ४. आमरणान्त दोष – मरण काल तक भी हिंसादि करने
का अनुपान न होना।
रौद्रध्यानी व्यक्ति कठोर और संक्लिष्ट परिणाम वाला होता है। वह दूसरे के दुःख, कष्ट एवं संकट में तथा पाप कार्य में प्रसन्न होता है, उस के मन में दयाभाव का अभाव होता है।
३. धर्म ध्यान - प्रस्तुत ध्यान आत्म-विकास का प्रथम चरण है। उक्त ध्यान में साधक आत्म चिन्तन में प्रवृत्त होता है। शास्त्र वाक्यों के अर्थ, धर्म मार्गणाएँ, व्रत, समिति, गुप्ति आदि भावनाओं का चिन्तन करना धर्मध्यान है इस ध्यान के लिये ज्ञान. दर्शन. चारित्र और वैराग्य नितान्त अपेक्षित है। इन से सहज रूप से मन सुस्थिर हो जाता है। इस ध्यान की सिद्धि के लिये मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य इन चार भावनाओं का चिन्तन करना अनिवार्य है। धर्मध्यान का सम्यक् आराधन एकान्त स्थान में हो सकता है। ध्यान आसन सुखकारक हो, जिस से ध्यान की मर्यादा स्थिर रह सके। यह ध्यान पद्मासन से बैठकर या खड़े होकर भी किया जा सकता है। १२ धर्मध्यान में मुख्य तीन अंग है - ध्याता, ध्यान
और ध्येय। ध्यान का अधिकारी ध्याता है। एकाग्रताध्यान है। जिस का ध्यान किया जाता है, वह ध्येय है। चंचल मन वाला मानव ध्यान नहीं कर सकता। जहाँ आसन की स्थिरता ध्यान-साधना में आवश्यक है, वहाँ मन की स्थिरता भी अति अपेक्षित है। मानसिक चंचलता के कारण कभी-कभी साधक का मन ध्यान में स्थिर नहीं होता। इसलिये धर्म ध्यान के चार भेद हैं।१३ उनका
६ (क) ज्ञानार्णव. २४/३।
(ख) तत्त्वार्थ सूत्र ४/३६ । . १० ज्ञानसार १६। ११ ज्ञानार्णव २५/४॥ १२ ध्यान शतक - श्लोक ३८-३६। १३(क) स्थानांग सूत्र ४/१/६५
(ख) भगवती सूत्र २५/७/२४२ । (ग) योग शास्त्र - १०/७। (घ) ज्ञानार्णव ३०/५। (ङ) तत्त्वानुशासन ६/८। १४. योगशास्त्र - १०/१।
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ध्यान : स्वरूप और चिन्तन
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