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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
"जब तक न कर्म टूटें, तू टूटता रहेगा, __ श्रद्धेय मुनिवर अरिहंत के आराधक तो हैं ही, मिट्टी का यह खिलौना तू बार-बार बनकर। सरस्वती के उपासक भी हैं। उन्होंने श्रमणावश्यक सूत्र, दुनिया की दोस्ती पे ये दिल फ़िदा न करना, तत्त्व चिंतामणि, श्रावक-कर्त्तव्य, शुक्ल प्रवचन, बृहदालोयणा रहना रत्न जहाँ में तू होशियार बनकर।" आदि उत्कृष्ट कृतियों की रचना करके अपने सारस्वत धर्म यों तो श्रद्धेय सुमन मुनि जी के साक्षात दर्शन मैंने
का निर्वाह भी किया है। उनका जन्म विक्रम संवत् १६सन १-६-६३ ई. में किए, पर उनके परोक्ष दर्शन का
६२ की वसंत पंचमी को हुआ है। वसंत पंचभी सरस्वतीलाभ तो संभवतः मुझे बरसों पहले ही मिल गया था। सन्
पूजन का दिन है। इसी दिन हिंदी के अनुपम साहित्य१-६-५२ ई. का वर्ष हज़ारों जैन बंधुओं की तरह मेरे
स्रष्टा महाप्राण निराला का भी जन्म हुआ था। मनीषा जीवन का भी अविस्मरणीय वर्ष है। तब मैं सरदार हाई
और ज्ञान के धनी श्री सुमन मुनि जी पर भी माता स्कूल (जोधपुर) में सातवीं कक्षा का छात्र था। यह वही
| सरस्वती का वरद हस्त है। मुझ जैसे ज्ञान-पिपासु के लिए ऐतिहासिक वर्ष है जब स्थानकवासी परंपरा के अनेक
तो वे सभी सारस्वत साधक श्रद्धास्पद हैं, जो अपने मूर्धन्य संतों का सामूहिक चातुर्मास जोधपुर के सिंहपोल
सम्यक् ज्ञान का शुभ्र प्रकाश फैलाकर अंतःकरणों को भवन में संपन्न हुआ था। मेरी नानी धर्मपरायण देवी थीं।
आलोकित करते हैं। वे मद्रास से जोधपुर आए हुए अपने पितृविहीन दोहते को विगत तीन दशकों में जीवन की दिशा ही बदल प्रातःकालीन प्रार्थना-सभाओं में प्रतिदिन ले जाया करती गई। परिस्थितियों के प्रहारों ने इतना जर्जर कर दिया कि थीं। संत-समागम का ऐसा अवसर जिसके जीवन में एक
धर्म के धरातल पर खड़े होने का साहस भी जाता रहा । बार भी आ जाय, तो उससे बढ़कर सौभाग्यशाली और
प्रवचन-श्रवण तो दूर की बात, संत-दर्शन का सौभाग्य भी कौन होगा? कितने आनंद और उत्साह के साथ मैं और
लुटता रहा। श्रद्धा अवश्य है, पर प्रकृत्ति नहीं। शायद मुझ जैसे सैकड़ों बच्चे सिंहपोल की ओर दौड़े चले जाया
यह सुकृत्यों के चुक जाने का ही परिणाम है। मानस की करते थे! जैन धर्म की और प्रमुख संतों की जयजयकार
अर्धाली याद आती है: पुण्य पुंज बिनु मिलहि न संता। करते हुए संपन्न हुआ करती थी- हमारी प्रणति-परिक्रमा।
श्रद्धेय गुरुवर श्री सुमन मुनिजी शांत, समताधारी और अनिवर्चनीय सुख के उन पावन क्षणों को कोई कैसे भूल
लोकोपकारी संत हैं। जीवन का यथार्थ जानने व समझानेवाले सकता है? बड़े-बड़े संतों और उनके शिष्यों के चरणों में
विद्वान मुनि हैं। उनकी साधुता, उनकी सरलता, उनकी बार-बार झुककर प्रणाम करते हुए किसे पता था कि इन
निस्पृहता, उनकी विद्वत्ता और उनकी मानवीयता किसी संतों के मध्य एक ऐसा सुमन भी है, जो बरसों बाद
को प्रभावित किए बिना नहीं रहेगी। वे जन-जन के अपनी सुगंध से ज्ञान पिपासुओं को आकृष्ट करेगा?
दुःखों का निवारण करनेवाले कर्मयोगी हैं। कविवर युगवीर श्रमण-संघ के उन तेजस्वी संतों के बीच श्री सुमन मुनिजी
ने ऐसे ही संतों को लक्ष्य में रखकर कहा होगा:भी थे जो अपने दीक्षित जीवन के तृतीय चातुर्मास - निमित्त अपने पूज्य गुरुदेव के संग वहाँ विराजमान थे।
"विषयों की आशा नहीं जिनको वह था - श्रद्धेय श्री सुमन मुनिजी का परोक्ष दर्शन । साम्य भाव धन रखते हैं। उनके चरण स्पर्श करने का सौभाग्य मुझे अवश्य ही मिला निज-पर के हित-साधन में जो होगा।
निशि-दिन तत्पर रहते हैं।
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