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________________ जैन संस्कृति का आलोक करके सिद्धि और असिद्धि में सम होकर कर्म करो, समत्व में स्थित होना ही योग कहलाता है। समत्वयोग में स्थित पुरुष भगवद्गीता के अनुसार मन-वचन-काय को रागादि से दूषित न होने देकर समबुद्धि से युक्त रहता है, पुण्य और पाप दोनों का त्याग करना ही कर्मबंधन से छूटने का उपाय है, यह समत्व योग ही कर्मों में कुशलता है।" अर्थात् कर्म करते हुए भी उससे किसी भी प्रकार से लिप्त नहीं होना है।०२ अतः आत्मधर्म के साधक को अपनी साधना में समदृष्टि एवं समत्वयोग को अपनाकर जीवन यात्रा करना हितावह है। - सन्दर्भः १. तेऽमी मानुष-रक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये। - भर्तृहरि नीतिशतक ६४ २. (क) येषां न विया, न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः। ते मर्त्यलोके भुविभारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरंति।। ३. धम्मो वत्थु सहावो - कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४७८ ४. सुखस्य मूलं धर्मः - चाणक्यनीति सूत्र - २ ५. धम्मोमंगलमुक्किटुं - दशवैकालिक १/१ ६. 'ओसहमउलं च सव्व दुक्खाणं' - धम्मोबलमवि विउलं ।' दीर्घनिकाय ३/४/२ ८. यतोऽभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः - वैशेषिक दर्शन ६. संसार दुःखतः सत्वान् यो धरति उत्तम सुखे। सदृष्टि - ज्ञान - वृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः।। - रत्नकरण्ड श्रावकाचार २ १०. आत्मशुद्धि साधनं धर्मः - जैनतत्त्वदीपिका ११. धारणाद्धर्म मित्याहुः - मनुस्मृति १२. दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः। - मनुस्मृति १३. ' न लिंगम् धर्मकारणम् ।' - मनुस्मृति ६/६६ १४. पच्चयत्थं च लोगस्स नाणाविह विगप्पणं । - उत्तराध्ययन, सूत्र २३/३२ १५. धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः।' -मनुस्मृति ८/१५ १६. अप्पा खलु सययं रक्खियबो, सबिंदिएहिं सुसमाहिएहिं। अरक्खिओ जाइपहं उवेइसु रक्खिओ सब्बदुहाण मुच्चइ।। - दशवकालिक विवित्तचरिणा, बीया चूला।१६ १७. एस धम्मे धुवे णिच्चे सासए......। - आचारांग १८. आवश्यकसूत्र चउवीसत्थव पाठ। १६. चारित्तं खु धम्मो, सो धम्मो समोत्ति णिहिट्ठो। - प्रवचन सार २०. चारित्तं समभावो। - पंचास्तिकाय १०७ २१. समयाए धम्मे आरिएहिं पवेइए।' आचारांग/समया धम्ममुदाहरे मुणी - सूत्रकृतांग १/२/२/६ २२. जो समो सवभूएसु, तसेसु थावरेसु य। तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलि भासियं ।। - अनुयोगद्वार २३. आया सामाइए, आया सामाइयस्स अट्ठे । आया संवरे, आया संवरस्स अद्वे...।। भगवती सूत्र २४. सव्वभूयप्पभूयस्स समं भूयाइ पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधइ।। दशवै ४/६ २५. (क) 'एगे आया।' स्थानांग १/१ (ख) सिद्धां जैसो जीव है, जीव सोइ सिद्ध होय ।' २६. 'संमं मे सव्वभूदेसु ।' - नियमसार १०२ २७. 'यथा अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं।' सुत्तनिपात ३/३७/२७ २८. 'जं इच्छसि अप्पणतो, तं इच्छस्स परस्स वि ।' - बृहत्कल्पभाष्य ४५८४ सव्वं जगं तु समयाणुप्पेही पियमपियं कस्सइ णो करेजा। - सूत्रकृतांग १/१०/७ सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वदं। जे उ तत्थ विउस्संति, संसारे ते विउस्सिया - सूत्रकृतांग १/१/२/२३ २९. "समभावो सामाइयं" - आवश्यकनियुक्ति ३०. "चारितं समभावो" - पंचास्तिकाय ३१. समभावभावियप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो। - हरिभद्रसूरि । ३२. लाभालाभे सुहे-दुक्खे, जीविए मरणे तहा। समो जिंदा-पसंसासु, तहा माणावमाणओ।। - उत्तरा. १६/६० ३३. 'सबपाणेसु समो से समणो होई' - प्रश्नव्याकरण | धर्मसाधना का मूलाधार : समत्वयोग १६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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