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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि इश्यो होय तूं जाण रे, काल सौ कुटुम्ब काज, लोकलाज लारसी। सर्व जग जंतु सम गिणे, सीठ सौ सुजसु जाने, बीठ सौ बखत माने, गिणे तृण मणि भाव रे, ऐसी जाकी रीत ताहि वंदत बनारसी ।। मुक्ति संसार बेहु सम गिणे, भावार्थ यह है कि संत सांसारिक अभ्युदय को एक मुणे भव-जलनिधि नांव रे"१ आपत्ति ही समझते है। महाव्रत, समिति-गप्ति का पालन समभाव ही चारित्र है, ऐसे समत्वभाव रूप निर्मल करते हुए जो इंद्रिय विषयों से विरक्त होते है, वे ही चारित्र का पालन करनेवाले मुनि संसार उदधि में नौका के सच्चे संत है। कवि ने साधु के अट्ठाइस मूल गुणों का समान है। श्रमण से अभिप्राय आत्मज्ञानी श्रमण से है; भी विस्तृत विवेचन किया है। शेष उनकी दृष्टि में द्रव्यलिंगी है - कवि भूधरदासजी की गुरु-स्तुति आतमज्ञानी श्रमण कहावै, बीजा तो द्रव्यलिंगी रे ।। ___ भूधरदासजी ने दो गुरु-स्तुतियों की रचना की थी। वे दोनों ही “ जिनवाणी संग्रह" में प्रकाशित है। जैनों में कविवर बनारसीदासजी की दृष्टि में संत-स्तुति देव, शास्त्र और गुरु की पूजा प्राचीनकाल से चली आ ___अध्यात्मयोगी कविवर बनारसीदासजी महाकवि रही है। गुरु के बिना न तो भक्ति की प्रेरणा मिलती है तुलसीदासजी के समकालीन कवि थे। उनका समय वि.सं. और न ज्ञान ही प्राप्त होता है। गुरु के अनुग्रह के विना १६४३-१६६३ तक का है। उनकी रचना "अर्द्धकथानक" कर्म शृंखलाएँ कट नहीं सकती। गुरु राजवैद्य की तरह हिंदी का सर्वप्रथम आत्मचरित ग्रंथ है। वैसे ही कवि की भ्रम रूपी रोग को तुरन्त ठीक कर देता है। सर्वोत्कृष्ट रचना “समयसार नाटक" अध्यात्म जिज्ञासुओं "जिनके अनुग्रह बिना कभी, के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। संत स्वभाव का और नहीं कटे कर्म जंजीर। संत के लक्षण वर्णन करनेवाला उनका सवैया इकतीसा वे साधु मेरे उर बसहु, दृष्टव्य है मम हरहु पातक पीर।।" कीच सौ कनक जाकै, नीच सौ नरेश पद, मीच सी मिताई गरूवाई जाकै गारसी। गुरु केवल “परोपदेशे पाण्डित्यं" वाला नहीं होता, जहर सी जोग जाति, कहर सी करामाती, __ अपितु वह स्वयं भी इस संसार से तिरता है और दूसरों हहर सी हौस, पुद्गल छवि छारसी। को भी तारता है। भूधरदासजी ऐसे गुरु को अपने मन में जाल सौ जग विलास, भाल सौ भुवनवास, स्थापित कर स्वयं को गौरवान्वित मानते हैं। ऐसे गुरुओं १. आनंदघन ग्रंथावली, शांतिनाथ जिन स्तवन २. वही, वासुपूज्य जिन स्तवन ३. समयसार नाटक, बंध द्वार १६ वाँ पद ४. पंच महाव्रत पाले..... मूलगुण धारी जती जैन को।। समयसार, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार।।८।। १४८ प्राचीन जैन हिंदी साहित्य में संत स्तुति | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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