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________________ साधना का महायात्री श्री सुमन मुनि कबीरदासजी ने संत को जाति-पांति से मुक्त, पंथ, काल, देश की सीमा से परे कहकर उनके ज्ञान से संत का महत्व प्रतिष्ठापित किया है। संत की आत्मा हर क्षण संतुष्ट रहती है, उसे किसी चीज की चाह नहीं होती, अन्न भी वह उतना ही ग्रहण करता है, जितने से उदर निर्वाह हो। संत गुणग्राही होता है, वह सद्भूत का ग्राहक है, अद्भूत का नहीं। संत का स्वभाव सूप की तरह होता ____ संत रविदासजी ने तो संतों के मार्ग पर चलनेवाले मानव तक को प्रणाम किया है, क्योंकि संत के मन में विश्व के कल्याण की कामना कूट-कूट कर भरी होती “नमो लोए सव्व साहूणं" ___ अर्थात् लोक के सभी साधुओं को नमस्कार है। आवश्यक सूत्र में भी अरिहंत और सिद्ध के समकक्ष साधु को रखकर उसकी गरिमा में अभिवृद्धि की है। अरिहंत और सिद्ध के समान ही साधु को भी मंगल और उत्तम रूप कहकर उनका शरण ग्रहण करने का निर्देश किया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में स्थान-स्थान पर साधु के तप, त्याग, परिषह जय, दुष्कर ब्रह्मचर्य, और समत्व भाव की प्रशंसा मुक्त मन से गायी गई है। साधु समता भाव का आराधक होता है। वह सदा प्रसन्नचित्त रहता है। वह दुष्ट व्यक्तियों द्वारा दिए गए प्रतिकूल उपसर्गों पर भी क्रोध नहीं करता। चंदन को जैसे कुल्हाड़ी से छेदन-भेदन करने पर भी शीतलता और सुगंध प्रदान करता है, उसी प्रकार साधु भी हर अवस्था में अपने गुणों की सुगंध ही बिखेरता है। लाभ हो या हानि, सुख के साधन प्राप्त हो या दुःख के निमित्त, शुभ कर्मों का उदय हो या अशुभ कर्मों का उदय, कोई निंदा, अनादर या ताडन-तर्जन करे अथवा आगम साहित्य में संत-स्तुति जैन शास्त्रों में साधु के स्वरूप, उनके आचार गोचर, उनकी दिन चर्या, आदि का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। भगवती सूत्र में जहाँ अरिहंत और सिद्ध परमात्मा को परमेष्ठि पद में स्थान दिया है, वहीं साधु को भी परमेष्ठि में स्थान देकर उन्हें परम पूज्य मानकर नमस्कार किया गया १. जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान ।। - कबीर ग्रंथावली २. संत न बांधे गड्डि, पेट समाता लेइ, सांई सु सन्मुख रहै, जह मांगो तह देइ ।। - वही,२० ३. साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय । सार-सार को गहि रहै, थोथा देय उड़ाय।। - वही, २६ ४. जो जन संत सुमारगी, तिन पाँव लागो रविदास, संतन के मन होत है, सब के हित की बात, घट-घट देखे अलख को, पूछे जात न पाँत ।। - गुरु रविदासजी की वाणी ।। १२,१७ ५. साहू मंगलं, साहू लोगुत्तमा, साहू सरणं पवज्जामि। - आवश्यक सूत्र ६. समयाए समणो होइ - उत्तराध्ययन सूत्र ७. महप्पसाया इसिणो हवंति - वही।। १२।। ३१ ५.अणिस्सिओ इहं लोए, परलोए अणिस्सिओ, वासी चंदणकप्पो य, असणे अणसणे तहा।। - वही, १६/६२ १४६ प्राचीन जैन हिंदी साहित्य में संत स्तति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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