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जैन संस्कृति का आलोक
वर्तमान में नारी किसी भी बात में पीछे नहीं है, पुरुष पढ़ाती है। नारी समाज का केंद्र बिंदु है। बाल संस्कार के कंधे से कंधा मिलाकर चलने को तैयार है। सरोजिनी और व्यक्तित्व निर्माण का बीज समाहित है - नारी के नायडू, कस्तूरबा, विजयलक्ष्मी पंडित, मदर टेरेसा जैसी आचार-विचार और व्यक्तित्व में ! उन्हीं बीजों का प्रत्यारोपण महान् नारियाँ जागृत नारी शक्ति का परिचायक है। देश होता है, उन बाल जीवों के कोमल हृदय पर जो नारी को भक्तिनी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता तथा मेवाड़ मातृत्व का स्थान प्रदान करते हैं। समाज ने नारी को की पद्मिनी इत्यादि सुकुमार नारियों का जौहर याद करे अनेक दृष्टियों से देखा है, कभी देवी, कभी माँ, कभी तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। पन्ना धाय के अपूर्व त्याग ने पत्नी, कभी बहन, कभी केवल एक भोग्यवस्तु के रूप में ही महाराणा उदयसिंह को मेवाड का सिंहासन दिलाया, उसे स्वीकार किया है। समाज की संस्कारिता और उसके जिससे इतिहास ने नया मोड़ लिया। इसी तरह अनेक आदर्शों की उच्चता की झलक, उसकी नारी के प्रति हुई नारी रत्नों ने अपने त्याग व बलिदान एवं सतीत्व के तेज दृष्टि से ही मिलती है। इस तरह नारी के पतन और से भारतवर्ष की संस्कृति को समुज्ज्वल बनाया। महर्षि उत्थान का इतिहास समाज में धर्म और नीति की उन्नति रमण का कहना है - "पति के लिए चरित्र, संतान के लिए और अवनति का प्रत्यारोपण कराता है। ममता, समाज के लिए शील, विश्व के लिए दया, तथा
नारी बिन नर है अधूरा जीव मात्र के लिये करुणा संजोनेवाली महाप्रकृति का नाम ही नारी है। वह तप, त्याग, प्रेम और करुणा की प्रतिमूर्ति
पुरुष बलवीर्य का प्रतीक होते हुए भी नारी के बिना है। उसकी तलना एक ऐसी सलिला से की जा सकती है अधूरा है। राधा बिना कृष्णा, सीता बिना राम और बिना जो अनेक विषम मार्गों पर विजयश्री प्राप्त करते हुए सुदूर ।
गौरी के शंकर अर्धांग है। नारी वास्तव में एक महान् प्रान्तों में प्रवाहित होते हुए संख्यातीत आत्माओं का कल्याण
शक्ति है। भारतवर्ष ने तो नारी में परमात्मा के दर्शन किए करती है। उसमें पृथ्वी के समान सहनशीलता, आकाश के
हैं और जगद्जननी भगवती के रूपों में पूजा है। नारी समान चिंतन की गहराई और सागर के समान कल्मष को समाज का भावपक्ष है, नर है - कर्मपक्ष । कर्म को उत्कृष्टता आत्मसात् कर पावन करने की क्षमता विद्यमान है।"
और प्रखरता भर देने का श्रेय भावना को है। नारी का
भाव-वर्चस्व जिन परिस्थितियों एवं सामाजिक आध्यात्मिक ___ नारी की तुलना भूले-भटके प्राणियों का पथ प्रदर्शित
एवं धार्मिक क्षेत्रों में बढेगा. उन्हीं में सखशान्ति की अजस्त्र करनेवाले प्रकाशस्तंभ से की जा सकती है। उसके जीवन
धारा बहेगी। माता, भगिनी, धर्मपत्नी और पुत्री के रूप में राहों की धूल भी है, वैराग्य का चन्दन भी है और राग
में नारी सुखशान्ति की आधारशिला बन सकती है, बशर्ते का गुलाल भी है। वह कभी दुर्गा बनकर क्रान्ति की
कि उसके प्रति सम्मानपूर्ण एवं श्रद्धासिक्त व्यवहार रखा अग्नि प्रज्वलित करती है तो कभी लक्ष्मी बनकर करुणा
जाए, यदि नारी को दबाया-सताया न जाए तथा उसे की बरसात।
विकास का पूर्व अवसर दिया जाए तो वह ज्ञान में, नारी : प्रथम गुरु !
साधना में, तप-जप में, त्याग-वैराग्य में शील और दान में, नारी इस सृष्टि की प्रथम शिक्षिका है, वही सर्वप्रथम प्रतिभा, बुद्धि और शक्ति में तथा जीवन के किसी भी विश्वरूपी शिशु को न केवल अंगुली पकड़कर चलना क्षेत्र में पिछड़ी नहीं रह सकती। साथ ही वह दिव्य सिखाती है अपितु गिरकर फिर उठकर चलने का पाठ भी भावनावाले व्यक्तियों के निर्माण एवं संस्कार प्रदान में
| जैन संस्कृति में नारी का महत्व
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