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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि उपनिषद् में भी कहा है कि “आत्मानि विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति" - जो आत्मा को जान लेता है उसे सर्व ज्ञात हो जाता है । यहाँ जानने का अर्थ अनुभूति है । जब यह अनुभूति होती है, तब साधक संसार के माया, मोह, संयोग, वियोग से ऊपर उठ जाता है और सबको जानकर अपने आत्मभाव में रमण करता है । ज्ञाता - द्रष्टा भाव की साधना है ध्यान ध्यान की जागृत अवस्था आनन्दमयी होती है, यह प्रगति का सोपान है, इस अवस्था में सत्य का सबेरा होता है। ज्ञान आदित्य का उदय होता है । तब आत्मा अपने स्वरूप का बोध प्राप्त करके जाग उठती है । उसके जीवन में "सच्चं खु भगवं" की ज्योति जगमगाने लग जाती है । उस आत्म-ज्योति के दर्शन होते ही हृदय की सभी ग्रन्थियाँ विलीन हो जाती है और उसके सब संशय समूल क्षीण हो जाते हैं । कहा है कि भिद्यते हृदय ग्रन्थिर्छिद्यते सर्व संशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि, तस्मिन् द्रष्टे परावरे । । - अव प्रश्न समुपस्थित होता है कि हम ध्यान कैसे करे ? ध्यान क्या है ? ध्यान क्यों करें ? ध्यान क्या है ? - ध्यान है अमन की स्थिति । ध्यान है - मन का शून्य हो जाना । ध्यान है- मन का सध जाना। ध्यान है - चेतना का ऊर्ध्वारोहण । ध्यान है- अंतर का स्नान । ध्यान है - चित्त की शुद्धि | ध्यान है - विकारों से हटकर निर्मल हो जाना । ध्यान है - अन्तर में प्रवेश । ध्यान ही मुक्ति का द्वार है। ध्यान ही अंतर की जागरुकता है । ध्यान है - अहिंसा, संयम व तप रूपी त्रिवेणी की साकार अनुभूति के साथ जीवन जीना । ध्यान अंतर की खोज है। ध्यान — १३२ Jain Education International बाहर से पर्दा हटाता है और अन्दर की ओर ले के जाता है । जैसे पक्षी दिनभर आकाश में उड़ता रहता है और साँझ अपने घौंसले में आ जाता है वैसे ही विभाव से हटकर स्वभाव में आ जाना ही ध्यान है । ध्यान एक दीपक है जो अन्तर के आलोक को प्रकाशित करता है। ध्यान एक पवित्र गंगा है, जिसके पास बैठकर तुम स्नात हो सकते हो । ध्यान एक कल्पवृक्ष है, जिसके नीचे बैठकर के आप आनन्द के आलोक तक जा सकते हो । सामायिक ही ध्यान है - भगवान् महावीर के शब्दों में सामायिक ही ध्यान है । उन्होंने सामायिक व ध्यान को अलग नहीं कहा । सम् + आय + इक = सामायिक अर्थात् - समता ही ध्यान है । भगवान् महावीर ने ठाणांग सूत्र के चौथे ठाणे में ध्यान के चार भेद बताये हैं आर्त, रौद्र, धर्म एवं शुक्ल । उनमें आर्त और रौद्र भी ध्यान है, लेकिन वह गलत है, वासनाओं से भरा हुआ निगेटिव है । वह संसार की ओर ले जायेगा । धर्म और शुक्ल आपको परमार्थ की ओर ले जाएगा । 1 - स्वाध्याय व ध्यान का स्वरूप • ध्यान का अर्थ आँखें बन्द करना नहीं होता । ध्यान का अर्थ है - अपने स्वरूप में आ जाना । वस्तुतः भगवान् महावीर की साधना, उनका ज्ञान, आचरण एवं तप को जीवन में स्थापित करना है तो वह एक ही धारा है, वह है – स्वभाव और ध्यान । हम दोनों को अलग नहीं कर सकते। दो ही पंख है, दो ही पहिये है - गाड़ी के । स्वाध्याय का अर्थ ही ध्यान होता है। और ध्यान का अर्थ ही स्वाध्याय होता है। सामायिक का मतलब ही ध्यान होता है और ध्यान का मतलब ही सामायिक होता है, स्वाध्याय का अर्थ कुछ बोलना, धर्मकथा करना इतना ही स्वाध्याय नहीं होता । स्वाध्याय का अर्थ अपने को जान लेना है । स्व का चिन्तन, मनन करते हुए अनुशीलन For Private & Personal Use Only आत्मसाक्षात्कार की कला - ध्यान www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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