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________________ संसार की वस्तुएं ससीम है और मानव मन की इच्छाएं असीम है । उन दोनों का मेल नहीं हो सकता । तृष्णा ऐसी प्यास है जो संग्रह से शांत किये जाने पर और तीव्र होती है। तृष्णा मानव की अनेक उत्तम शक्तियों का विकास नहीं होने देती । " जैन श्रमण परिग्रह को मन-वचन और कर्म से न स्वयं संग्रह करता है, न दूसरों से करवाता है और न करने वाले का अनुमोदन ही करता है । वह पूर्ण रूप से अकिंचन / अनासक्त और असंग होता है । जैन श्रमण का एक नाम निर्ग्रन्थ है । " अनेकांत दर्शन वस्तु अनेकान्तात्मक है। एक ही वस्तु को अनेक दृष्टिकोणों से देखना-समझना अनेकांत है । एक ही वस्तु के संबंध भेद से अनेक रूप हो सकते हैं । यथा एक ही व्यक्ति अपेक्षा भेद से पुत्र है, पिता है, पति है, शिष्य है और गुरु भी है । अनेक का अर्थ है एक से अधिक । यह संख्या दो भी हो सकती है और दो से अधिक भी। अंत का अर्थ है धर्म-अवस्था विशेष । वस्तु के अनेक धर्मों को एक साथ समझानेवाली अर्थ-व्यवस्था अनेकांत है। जब कि वस्तु के अनेकांत स्वरूप को समझाने वाली सापेक्ष पद्धति स्याद्वाद है । व्यक्ति एक समय में वस्तु के अनेक पक्षों को देख समझ तो सकता है, परंतु वह केवल एक ही पक्ष को व्यक्त कर सकता है । ( एक समय में ) स्यात् शब्द का प्रयोग वस्तु की पर्यायों में / अवस्थाओं में किया जाता है। पर्याय परिवर्तनशील होती हैं । गुण वस्तु के अनुजीवी होते हैं। अनेकांत दर्शन वस्तु की गुणपर्याय परक स्थिति का पूर्ण अध्ययन करके उसकी संपूर्णता १. जैन आचार सिद्धांत और स्वरूप - पृ. ६५ - श्रमण संस्कृति का हृदय एवं मस्तिष्क Jain Education International - जैन संस्कृति का आलोक पर दृष्टि रखकर सापेक्ष कथन करता है । वह सदाग्रही है, एकांती और हठी या दुराग्रही नहीं । बौद्धदर्शन प्रत्येक वस्तु को अनित्य और नश्वर मानता है तो दूसरी ओर अद्वैतवाद वस्तु को नित्य और अविनाशी मानता है । चार्वाक पुद्गल या वस्तु के अतिरिक्त परलोक, पुनर्जन्म या आत्मा जैसी किसी मान्यता में विश्वास नहीं रखता । वह विशुद्ध भौतिकतावादी और प्रत्यक्षदर्शी है। स्पष्ट है कि उक्त तीनों धारणाएं ऐकान्तिक और अतिवादी है । स्याद्वाद संशयवाद नहीं है । संशयवाद में दोनों कोटियाँ अनिश्चित होती है । जवकि स्याद्वाद में दोनों कोटियाँ निश्चित होती है । जैसे यह सांप है या रस्सी ? द्रव्य दृष्टि से वस्तु नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य भी है । अनेकांती 'भी' में विश्वास रखता है जबकि एकान्ती 'ही' में। एक आपेक्षिक दृष्टि से कथन करता है तो दूसरा वस्तु के प्रत्यक्ष एक पक्ष पर ही आग्रह करता है । सप्तभंगी द्वारा भी उक्त सापेक्षवाद को स्पष्ट किया गया है । एक ही वस्तु को सात भंगों अर्थात् प्रकारों से कहा है - समझा जा सकता है। इसमें वस्तु की पर्याय दशा का महत्व है। अस्ति, नास्ति, अस्तिनास्ति, अवक्तव्य (४ भेद) अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य, अस्ति नास्ति अवक्तव्य ( ३ भेद) सप्तभंगी के स्पष्टीकरण के लिए घट का उदाहरण प्रचलित है १. स्यादस्ति प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव (अवस्थाविशेष की अपेक्षा से) सत् है । प्रत्येक वस्तु पर-द्रव्य की अपेक्षा से २. स्यान्नास्ति असत् है। ३. स्यादस्तिनास्ति है भी नहीं भी । श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री | - For Private & Personal Use Only उक्त दोनों दृष्टियों की अपेक्षा से १२६ www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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