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________________ जैन संस्कृति का आलोक जैन धर्म की मुख्य शिक्षा यही है कि सदाचरण के बिना आत्मा का कल्याण कदापि नहीं हो सकता। "परोपदेशेपाण्डित्यं" इस तरह दूसरों को उपदेश देने मात्र से अपना आत्मकल्याण होना असंभव है। अतः खुद को भी आचरण करने की बड़ी आवश्यकता है। यह सुंदर शिक्षा है। ___इस तरह का महत्वपूर्ण जैन धर्म अनादि काल से चला आ रहा है। परंतु अब पंचम काल चल रहा है। इस काल-दोष के कारण सद्धर्म का पतन और अधर्म का उत्थान नजर आ रहा है। इसे काल का दोष ही कहना चाहिए। तमिलनाडू और जैन धर्म अब हम तमिलनाडु में जैन धर्म, उसकी परिस्थिति पर विचार करेंगे। सबसे पहले समझने की बात यह है कि आजकल तमिलनाडु जितना दिखता है, पहले इससे कई गुणा विस्तृत था अर्थात् तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल और आंध्र सम्मिलित होकर विशाल था। इसे द्राविडनाडु के नाम से पुकारते थे और वह जैन धर्मावलंबियों का गढ़ था। यह जैन और अजैन सारे इतिहासकारों की सुनिश्चित वात है। वहाँ पर जैन धर्म और जैन संस्कृति का अच्छा प्रभाव था। क्योंकि यहाँ महान् आचार्य कुंदकुंद, समन्तभद्र और भट्टाकलंक आदि विस्तृत विद्वद् शिरोमणियों का जन्मस्थान एवं प्रचार स्थली होने के नाते जैन धर्म जगमगाता रहा। वे आचार्य गण ज्ञानसिंधु और गरिमा के प्रतीक थे। इस बात को केवल जैन ही नहीं अजैन भी तहेदिल से मानते हैं। भगवान् महावीर तीर्थंकर का समवशरण यहाँ आने के पूर्व तमिलनाडु में जैन धर्म मौजूद था और वहाँ जैन श्रावक लोग निवास करते थे। इससे आप लोग जान सकते हैं कि ईसा के ६०० वर्ष पूर्व वहाँ जैन श्रावक थे तमिलनाडु में जैन धर्म किंतु वे कब से थे यह विचार करने की बात है। सिंधुघाटी के आधार से भी इसका निर्णय हो सकता है परंतु यह विस्तृत विषय होने के कारण संक्षेप में कहा जा सकता है कि अहिंसा प्रधान आर्यों का यहाँ आना हुआ संभवतः जैन धर्म का प्रारंभ तभी से हुआ हो। इस तरह का अभिप्राय भी प्रचलित है। चाहे कुछ भी हो इस प्रांत में बहुत समय से जैन धर्म का प्रचार रहा और जैन श्रावक लोग रहा करते थे। यह बात एक तरह से सुनिश्चित है। प्रो. ए. चक्रवर्ती का कहना भी यही है। वे सुविख्यात इतिहासकार थे। तमिलनाडु जैन सिद्धांत और जैनत्व के अति प्राचीनतम भग्नावशेष का स्थानभूत प्राचीन देश है। यहाँ का स्थान जिनबिंब, जिनालय, शिलालेख, विज्ञान कला आदि से ओतप्रोत है। यहां पर जैनत्व के अनमोल जवाहरात बिखरे पड़े हैं। इन रत्नों का परिचय होना जैन समाज के लिए अत्यंत आवश्यक है। यदि उत्तरभारत की जैनी जनता यहाँ के खंडहरों का अवलोकन करेंगे तो स्पष्ट विदित होगा कि एक समय में जैन संप्रदाय के लोग कितनी तादाद में यहाँ रहे होंगे और उन लोगों से जैन धर्म की आराधना किस तरह से की गई होगी। यहाँ (तमिलप्रांत) के जैन धर्म तीर्थ और उन स्थानों को जाने का मार्ग आदि जानना आवश्यक समझा जायेगा। यहाँ की परम पवित्र तमोभूमियां त्यागी महात्माओं के त्याग के रजकणों से भरी पड़ी हैं। जिस प्रकार हमारे तीर्थंकर परम देवों ने उत्तर भारत को अपने दिव्य चरणों से पवित्र किया है। तदनुसार अत्यंत उद्भट महती प्रभावना से ओतप्रोत आचार्यों ने तमिल प्रांत को एकदम पवित्र बनाया है। इस प्रदेश में दिगंबर जैनाचार्यों के संचार ने जैन संस्कृति को अत्यंत प्रगतिशील बनाया है। मगर कालवश उसका उत्थान-पतन हुआ है। श्रुतकेवली भद्रबाहु महाराज के साथ १२ हजार ११७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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