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________________ जैन संस्कृति का आलोक अन्तर्दर्शन व विवेकीकरण की यही आधार भूमि है। तृण और स्वर्ण में, शत्रु और मित्र में समभाव ही विवेक-विचार, उचित-अनुचित का ज्ञान सदाचार के लिए सामायिक है। अर्थात् सर्वभूतों के प्रति समभाव । अनिवार्य है। आचारांग में महावीर बार-बार विवेक सहित 'षडावश्यक' में सामायिक का प्रथम स्थान है। एकीभाव संयम में रत हो जीवन पथ पर चलने का उपदेश देते हैं। द्वारा बाह्य परिणति से आत्माभिमुख होना सामायिक है। साहिस्सामो नाणं वीराणं सामायिक समत्व है (अर्थात् रागद्वेष से परे, मानसिक स्थैर्य और अनुकूल-प्रतिकूल में मध्यस्थ भाव रखना।) समियाणं सहियाणं सया संयम, नियम, तप में संलग्न रहना ही सामायिक है। जब जयाणं संघडदसिणं आतोवरयाणं वैर घृणा, द्वेष, विरोध आक्रामक वृत्ति ही नहीं रहेगी, तब अहा तहा लोयं समुवेहमाणाणं।। कहां से आएगा क्रोध कषाय। उत्तराध्ययन (२४-८) में जो वीर है, क्रियाओं में संयत हैं, विवेकी हैं, सदैव सामायिक के प्रश्न पर – "सामाइएणं भंते, जीवे किं यलवान हैं, दृढ़दर्शी व पाप कर्म से निवृत्त हैं और लोक जणयइ।" उत्तर में वीर प्रभु कहते हैं "सामाइएणं सावन को यथार्थ रूप में देखते हैं - ज्ञान और अनुभवपूर्ण तत्त्वदर्शी जोग-विरई जणयइ” समस्त प्राणियों के प्रति समभाव, को उपाधि नहीं होती। शुक्ल ध्यान के चार लक्षणों में शत्रु-मित्र, दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, निन्दा-प्रशंसा, संयोगविवेक तीसरा लक्षण है। जैन सिद्धान्तों के अनुसार इन्द्रिय वियोग, मानापमान में राग-द्वेष, का अभाव सामायिक विषयों और कषायों का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय । समता की साधना है। समभाव में स्थिर होना ही सामायिक के द्वारा जो आत्म-दर्शन करता है - उसी को तप धर्म है। गीता में “समत्वं योग उच्यते" से भी यही तात्पर्य है। होता है। असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति । क्रोध जो अपनी आत्मा को ज्ञान आदि के समीप पहुँचा दे। के परिहार के लिए जैन धर्म ज्ञान, ध्यान और तप पर बल वही सामायिक है। (सूत्रकृताङ्ग १-२)। ज्ञान, संयम, तप देता है। ...ज्ञान, ध्यान और तप का विपुल विवेचन इनसे जीव का जो प्रशस्त समभाव है - वही सामायिक है - जैनागमों में उपलब्ध है। जैन शिक्षा पद्धति जीवन निर्माण (दृष्टव्य मूलाचार, नियमसार)। का नियामक और धारक तत्व है। शिक्षा सूत्र के अनुसार मनोविज्ञान ने जहां क्रोध का उपचार बताया है यहाँ पांच कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती। शिक्षा के लिए ८ जैन - विज्ञान उपचार और परिहार के साथ-साथ उसके आवश्यक उपायों में सत्यरत रहना, अक्रोधी होना, अशील रूपान्तरण और आन्तरिक क्रियाशीलता के द्वारा व्यक्तित्व न होना, विशील न होना और इन्द्रिय और मनोविजय के सम्यक विकास का निरूपण भी किया है। ज्ञान, दर्शन मुख्य है। इस सूत्र में भावों के सद्भाव के निरूपण में जो और चारित्र का परमोत्कर्ष ही इस रूपान्तरण और श्रद्धा को सम्यक्त्व कहा गया है, जिसके दस भेद उल्लिखित क्रियाशीलता का लक्ष्य है। ज्ञान से पदार्थों का ज्ञान, हैं। इन सबके साथ जैन साधना की परम उत्कृष्ट पद्धति दर्शन से श्रद्धा और चारित्र से कर्मास्त्रव का निरोध होता है -- सामायिक। सामायिक का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है है। तीनों एक दूसरे के पूरक हैं। चारित्र के बिना ज्ञान व "समय" अर्थात् आत्मा के निकट पहुँचना । बाह्य प्रभावों दर्शन के बिना चारित्र कुछ भी अर्थ नहीं रखते। बाह्य से मुक्त होकर अतल आंतरिक क्षमता और शक्ति प्राप्त और आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त होना ही मानव जीवन का करना। यह सामायिक महत्व का अकाट्य प्रमाण है। परम लक्ष्य है। धर्म, दर्शन और अध्यात्म के साथ जैन “समभावो सामइयं तण-कंचण - सत्तुमित्तविसओति" मनोविज्ञान अनुपम और अनन्य है। कषाय : क्रोध तत्त्व १०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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