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________________ जैन संस्कृति का आलोक ततो धर्म विहीनानां गतिरिष्टा न विद्यते। (महाभारत - आदि पर्व ४-२-८) हुआ है। शायद ही कोई ऐसा आप्त ग्रन्थ हो, जिसने इस मनोविकार या कषाय की विवेचना नहीं की। अनेक काव्य ग्रंथों में क्रोध की मीमांसा की गयी है। जैन धर्म व तत्त्व चिन्तन में तो कषाय में सर्वप्रथम इसे परिगणित किया है। इस पर विचार करने के पूर्व हम भारतीय , वाङ्गमय में उपलब्ध क्रोध संबंधी कुछ अभिमत देखें। । काम के सदृश ही क्रोध से पराभूत होने पर विवेक और समय नष्ट हो जाता है। वह भी नरक का एक द्वार है। वाल्मीकीय रामायण में स्पष्ट उल्लेख है - कुद्धः पापं न कुर्यात् कः क्रुद्धो हन्याद् गुरुनपि । कुद्धः परुषया वाचा नरः साधूनधिक्षिपेत् ।। वाच्या वाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित् । नाकार्यमस्ति कुद्धस्य नावाच्यं विधतेक्वचित् ।। (सुन्दर काण्ड -५५-३-४) क्रोध से भर जाने पर कौन पाप नहीं करता, मनुष्य गुरुजनों की भी हत्या कर सकता है। क्रोधी साधु पुरुषों पर भी कटुवचनों द्वारा आक्षेप करता है । क्रोध से व्यक्ति अंधा और बहरा होता है - उसकी चेतना शक्ति नष्ट हो । जाती है और वह कर्तव्यहीन होता है। ज्योतिष शास्त्र में प्रसिद्ध षष्टि संवत्सरों में क्रोध एक संवत्सर है जिसमें सकल जगत आकुल- व्याकुल होकर प्राणियों में क्रोध की अतिशयता आती है। (वेदान्त सार)। 'शब्दार्थ चिन्तामणि' में कहा है - इस संवत्सर में "विषमस्य जगतः सर्वं व्याकुलं समुदाहृतम् । जनानां जायते भद्रे क्रोधे क्रोधः परः स्थिरम्' । महाभारत में "क्रोधा प्राधान्य विश्वा च विनतो कपिलो मुनिः क्रोध सबसे घातक शत्रु है – क्रोधः शत्रुः शरीरस्थो मनुष्याणां द्विजोत्तम" क्रोध मुनियों और यतियों के संचित पुण्य व साधना का क्षरण कर लेता है। क्रोधालू व्यक्ति धर्मविहीन होते हैं - उन्हें अभीष्ट गति प्राप्त नहीं होती। क्रोधो हि धर्मं हरति यतीनां दुःख संचितम् । श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण का स्पष्ट कथन है - "काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भवः" रजोगुण क्रियाशील है - इसी से रजोगुण समुद्भव कहा है। काम और क्रोध में अधिक अंतर नहीं - यः कामः स क्रोधः य क्रोधः स कामः”। आधुनिक मनोविज्ञान भी इस मत का अनुमोदन करता है। क्रोध को महापाप कहा है, क्योंकि क्रोध में ज्ञान आवृत्त होता है और व्यक्ति विवेक और संयमहीन हो जाता है। श्रीगीता में पुनः श्री कृष्ण कहते हैं - संगात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते - काम से क्रोध और क्रोधाद्भवति संमोहः - तत्पश्चात् स्मृति विभ्रम और बुद्धि-नाश”। इस प्रकार क्रोध को वर्जनीय गिना है। श्री कृष्ण पुनः कहते हैं – काम क्रोध से रहित शुद्ध चित्त वाले ज्ञानी पुरुषों के लिए सब ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण है। (५-२६)। आगे (१६-२) में भी कहा है – काम, क्रोध और लोभ ये तीन ही नरक के द्वार हैं और आत्मा का नाश करके अधोगति में ले जाते हैं - इन तीनों का त्याग आवश्यक है - त्रिविधं नरकस्येदं दारं नाशनमात्मनः। कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ।। क्रोध के दो स्तर हैं-शांत (साइलेन्ट) और आक्रामक (वाईलेन्ट)। पहला क्रोध शांत होता है जिससे व्यक्ति हताश, निराश व अवसादग्रस्त हो जाता है। आक्रामक क्रोध बहिर्मुखी होता है - जिससे व्यक्तित्व खंडित होता है और मानसिक एवं ग्रंथि तंत्रीय विषैले सुख व्यक्ति को अस्वस्थ करते हैं। क्रोध से थाइरॉड ग्लांड (कंठ मणि) का स्राव बंद हो जाता है जिससे विनाश की प्रवृत्ति बढ़ती है। इसी से कहा है - क्रोधः प्राणहरः शत्रुः क्रोधोऽमित मुखी रिपुः। | कषाय : क्रोध तत्त्व ६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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