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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि कषाय : क्रोध तत्त्व 0 प्रो. कल्याणमल लोढ़ा ___ क्रोध आत्मा के पतन का द्वार है। क्रोध से प्रेम, दया एवं करुणा की भावना विलुप्त हो जाती है। क्रोध बुद्धि को विकृत करनेवाला एवं मस्तिष्क को ताप देने वाला तत्व है। नरक गति में जाने के कारणों में एक कारण है – महाक्रोध । आत्म शांति को बाधित करनेवाला तत्व भी क्रोध ही है। क्रोध को उपसम भाव से,जीते बिना साधक की साधना अपूर्ण है। क्रोध तत्व को जैन-जैनेत्तर धर्म ग्रंथों के आधार पर व्याख्यायित एवं विश्लेषित कर रहे हैं - हिन्दी जगत् के मूर्धन्य एवं ज्येष्ठ-श्रेष्ठ लेखक --प्रो. डॉ. कल्याणमलजी लोढ़ा । - सम्पादक जैनधर्म में क्रोध एक कषाय है। चार कषायों में- क्रोध, मान, माया और लोभ में क्रोध की सर्वप्रथम गणना की गयी है। आस्रव के पांच द्वारों में कषाय चतुर्थ है। पांच द्वार हैं - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। “कषति इति कषायः" - जो आत्मा को कसे और उसके गुणों का घात करे वह कषाय है। “कर्षति इति कषायः" - जो संसार रूपी कृषि को बढ़ाए / जन्म-मरण नाना दुःखों का वर्धन करे - जो आत्मा को बंधनों में जकड़ कर रखे, वही कषाय है। कषाय आत्मा का आंतरिक कालुष्य है। “कषाय वेदनीयस्योदयादात्मनः कालुष्य क्रोधादि रूपमुत्पद्यमानं “कषायात्मात्मानं हिनस्ति" यही कषाय है। कर्म के उदय से होने वाली कलुषता कषाय कहलाती है क्योंकि वह आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप को कस देती है। क्रोध, मान, माया, लोभ के पथ में धंस कर जीव अपने स्वभाव से विस्मृत होकर त्रि-भाव (विकृत भाव) में लिप्त हो जाता है, जहां केवल ऐषणाएं हैं - अनवरत अतृप्ति, स्पर्धा और भोग प्रवृत्ति के साथ अधिकार लिप्सा और आत्म प्रवंचना है। जीवन एक भूल भुलैया बन जाता है, जिसमें प्रवेश के द्वार तो अनेक हैं पर बाहर आने के मार्ग अत्यंत दुष्कर है। जैन धर्म (प्रत्येक नीति शास्त्र) इसी से कषायों की विकृति पर बल देता है। कलियुग का एक नाम कषाय भी है। गोम्मटसार में दो प्रकार से कषाय की उत्पत्ति बताई है - कर्म क्षेत्र का जो घर्षण करता है वह कषाय है। इससे संसार रूपी मर्यादा अत्यन्त दूर है। दूसरी उत्पत्ति 'कष्' धातु से है - जीव के शुभ परिणामों को जो “कषे” वह कषाय है। इस कषाय के अनेक भेद हैं। जैन धर्म व दर्शन में इनकी विशद व्याख्या की गयी है। उमास्वाति कहते हैं - "शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य" (तत्त्वार्थ सूत्र) शुभ योग पुण्य है और अशुभ योग आस्रव के हेतु। पुण्य कर्म के आस्रव का हेतु शुद्धोपयोग है। जैन धर्म में कषाय का विशद वर्णन आगमों व अन्य ग्रंथों में मिलता है। दशवैकालिक नियुक्ति (१८६) में कहा है "संसारस्स मूलं कम्म, तस्स वि हंति य कसाया" - विश्व का मूल कर्म है और कर्म का मूल कषाय। एक अन्य स्थान पर कषाय रूप अग्नि जिससे प्रदीप्त होती है, उस कार्य को छोड़ देना चाहिए और कषाय को दमन करने वाले कार्यों को धारण करना अपेक्षित है। (गुणानुराग कुलक) कषाय दमन के लिए क्रोध मान, माया एवं लोभ का हनन; मृदुता, ऋजुता और सहिष्णुता से संभव है। यही नहीं सारी साधना और तपस्या को क्षण भर के कषाय नष्ट कर देते हैं (निशीथ भाष्य २७६३) कषाय ही आत्मा का शत्रु है। उत्तराध्ययन (२३ - ५३) में कहा है - कषाय रूपी अग्नि को ज्ञान, शील और तप के शीतल जल से बुझाया जा सकता है - “कसाया अग्गिणो वुत्ता, सुय सीतल तवो जलं ।” कषाय असंयम को जन्म । ६४ कषाय : क्रोध तत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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