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________________ जैन संस्कृति का आलोक - इस दृष्टि को कान्ता नाम देने में भी आचार्यवर का अपना विशेष दृष्टिकोण रहा है। कान्ता का अर्थ लावण्यमयी प्रियंकरी गृहस्वामिनी होता है। ऐसी सन्नारी पतिव्रता होती है। पतिव्रता नारी की यह विशेषता है कि वह घर, परिवार तथा जगत् के सारे कार्य करती हुई भी अपना चित एकमात्र अपने पति से जोड़े रहती है। उसके चिन्तन का मूल केन्द्र उसका पति होता है। कान्तादृष्टि में पहुँचा हुआ साधक आवश्यकता एवं कर्तव्य की दृष्टि से जहाँ जैसा करना अपेक्षित है, वह सब करता है, पर उसमें आसक्त नहीं होता। अन्ततः उसका मन उसमें रमता नहीं है। उसका मन तो एकमात्र श्रुत-निर्दिष्ट धर्म में ही लीन रहता है। उसके चिन्तन का केन्द्र आत्मस्वरूप में संप्रतिष्ठ होता है। वह अनासक्त कर्मयोगी की स्थिति पा लेता है। गीताकार ने ऐसे अनासक्त कर्मयोगी का बड़ा सुन्दर भाव-चित्र उपस्थित किया है। कहा है - "तुम्हारा कर्म करने में ही अधिकार है, फल में नहीं। कर्म-फल की वासना कभी मत रखो और अकर्मकर्म न करने में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।" कान्तादृष्टि प्राप्त गीताकार के शब्दों में उत्कृष्ट, निष्काम, स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी की भूमिका का सम्यक् निर्वाह करता सच्चारित्र्य के अनुपालन में उद्यमशील रहता है। एक ऐसी अन्तर्जागृति साधक में उत्पन्न हो जाती है कि वह स्वभाव में अनुरत और पर-भाव से विरत रहने में इच्छाशील एवं यत्नशील रहता है। पर-भाव से पृथक् रहने के समुद्यम का यह प्रतिफल होता है कि उसके सद् आचरण में कोई अतिचार-प्रतिकूल कर्म या दोष नहीं होता। अशुभपापमूलक, शुभ/पुण्यमूलक उपयोग से ऊँचा उठकर वह साधक शुद्धोपयोग के अनुष्ठान की भूमिका में अवस्थित हो जाता है। आत्मा के निर्लिप्त-राग, द्वेष, मोह आदि से असंपृक्त शुद्ध स्वरूप की भव्य भावना का वह अनुचिन्तन करता है। ऐसे साधक की प्रमाद रहित साधना-भूमि और विशिष्ट बनती जाती है। ऐसा अप्रमाद वह अधिगत कर लेता है कि फिर उसको उसके स्वरूप से भ्रष्ट या च्युत करने वाला प्रमाद वहाँ फटक नहीं सकता। ऐसे साधक की एक विशेषता और होती है, साधना के अनुभव-रस का जो पान वह कर चुका होता है, ज्ञान एवं दर्शन का जैसा प्रत्यय, बोध, अनुभव वह पा चुका . होता है, उससे औरों को भी लाभ मिले, औरों को भी वह ऐसे मार्ग के साथ जोड़ सके, इस प्रकार का उद्यम भी उसका रहता है। निर्मल आत्मज्ञान के उद्योत के कारण ऐसे साधक का व्यक्तित्व धर्म के आचरण की दृष्टि से बहुत गंभीर और उदार भूमिका का संस्पर्श कर जाता है, समुद्र की सी गंभीरता उसके व्यक्तित्व का विशेष गुण हो जाता है। ७. प्रभादृष्टि : ग्रंथकार ने प्रभादृष्टि को सूर्य के प्रकाश की उपमा दी है। तारे और सूर्य के प्रकाश में बहुत बड़ा अन्तर है। वैसी स्थिति प्राप्त कर लेने के कारण सक्रिया के भावानुष्ठान में वह सोत्साह संलग्न रहता है। अनुष्ठान शब्द अपने आप में बड़ा महत्वपूर्ण है। अनु उपसर्ग का अर्थ पीछे या अनुरूप है। सम्यक् ज्ञानी की क्रिया उस द्वारा प्राप्त आत्मज्ञान के अनुरूप या उसका अनुसरण करती हुई गतिशील रहती है। वह भावक्रिया है। वहाँ क्रियमाण कर्म में केवल दैहिक योग नहीं होता, आत्मा का लगाव होता है। वैसा पुरुष अनवरत धर्म के आचरण या १. श्रीमद्भगवद्गीता - २,४७ | जैन साधना एवं योग के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्र सूरि की अनुपम देन : आठ योग दृष्टियाँ ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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