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________________ जैन संस्कृति का आलोक संकलन, वेदों में हो जाने से यज्ञपरक भाग से ब्राह्मणों इसीलिए पशुवध रोकने के कारण याज्ञिक उन्हें विघ्नकर्ता का तथा त्यागपरक भाग से श्रमणों का समाधान होता अनार्य, असुर, म्लेच्छ कहा करते थे। व्रात्य भौतिक रहा। जैन विचारकों का मत है कि भले ही आज वेद देवताओं को न मानने से 'अदेवयु', यज्ञ विरोधी होने से ब्राह्मण धर्म के ग्रंथ हो गये हैं लेकिन वे बहुत वर्षों तक अयज्वन, अन्यव्रत, अकर्मन् आदि नामों से पुकारे जाते श्रमण संस्कृति के भी आधार ग्रंथ रहे हैं जिनमें प्रथम थे। तीर्थंकर ऋषभदेव की वाणी संकलित है। उन्हें महाव्रात्य व्रात्यों और ब्राह्मणों का विकास-क्रम जानने के लिए कहा जाता था। वेद में ऋषभवाणी का समावेश हो जाने हमें अतीत के उस पाषाणयुग और धातुयुग में जाना से सिद्ध हो जाता है कि व्रात्य वेदों से भी प्राचीन है।" पड़ेगा जहाँ 'मोहनजोदड़ो' और 'हड़प्पा' की सैन्धव और व्रात्य भारत का प्रातीनतम सम्प्रदाय है। उसका प्रादुर्भाव व्रात्य सभ्यता की जन्म कहानी शिलांकित की गई है। वेदों के निर्माण से पूर्व और संभवतः आर्यों के आगमन से तक्षशिला, मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, मथुरा के टीलों से मिले पहले हो चुका था। वेद में व्रात्य, द्रविड़, दास, दस्यु, शिलालेख, उड़ीसा की हाथीगुफा से प्राप्त खारवेल के पणि, किरात और निषादादि शब्दों का उल्लेख है। उन्हें शिलालेख, उजैन की प्राचीनतम प्रस्तर कृतियाँ देखें तो सम-समानार्थक तो नहीं कहा जा सकता हाँ, व्रात्यों के उनमें मुनियों को, ऋषभदेव की धार्मिक सभा को, उपदेशों प्रभाव से आयी हुई प्राचीन जातियाँ अवश्य माना जा को अधिक व्यापक सर्वजाति और सर्वजीव समानत्व के सकता है। लिए उकेरा गया है। इससे भी प्रमाणित होता है कि वेद में व्रात्य को परमेश्वर. आत्मद्रष्टा मनि के रूप में आर्यों के आने से पूर्व भारतवर्ष में द्राविड़ों और आग्नेयों चित्रित किया गया है। वह अक्षरशः जैन तीर्थंकर का का पर्याप्त विकास हो चुका था। वर्णन है किन्तु स्मृति-युग में व्रात्य को निन्दित बताया भारतीय रहस्यवाद के विकास की पृष्ठभूमि और गया। सम्भव है कि उस समय श्रमण ब्राह्मणों में एक उसमें साधुसंस्था के योगदान का ऐतिहासिक विश्लेषण दूसरे का विरोध करने का वातावरण बन गया हो। करते हुए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व महानिदेशक श्री उसका प्रभाव व्याकरणकार पर भी पड़ा है। जैन शास्त्रों । एम.एन. देशपांडे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे- “भारत में में अरिहंतों का श्रावकों के प्रति (मनुष्य के लिए) गौरवमय साधवत्ति अत्यन्त परातन काल से चली आ रही है और उच्चारण "देवानुप्रिय" रहा, जिसका सामान्य अर्थ देवताओं जैन मुनि चर्या के जो आदर्श ऋषभदेव ने प्रस्तुत किये वे से भी अधिक प्यारा लगने वाला मानव होता है किन्तु ब्राह्मण परम्परा से अत्यन्त भिन्न हैं। यह भिन्नता पाणिनीय व्याकरण में 'देवा न प्रिय' का अर्थ मूर्ख किया उपनिषदकाल में और भी मुखर हो उठती है। उपनिषदों गया और अहि-नकुल, मार्जर-मूषक की भांति श्रमण की मूल भावना की संतोषजनक व्याख्या केवल तभी ब्राह्मणों को जन्मजात बैरी बता दिया गया। संभव है जब इस प्रकार सांसारिक बंधनों के परित्याग व्रती का लक्ष्य एकमात्र आत्म-साक्षात्कार अन्तर्नाद और गहविरत भ्रमणशील जीवन को अपनाने वाली मनिचर्या और परमात्मपद प्राप्ति है और याज्ञिक का ध्येय स्वर्ग तथा के अतिरिक्त प्रभाव को स्वीकार कर लिया जाय । भारतीय लोकैषणा प्राप्ति के लिए अनुष्ठान और सोमपान की ओर धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रवृत्त होना है। व्रात्य पशुओं का वध यज्ञ में होता नहीं सृष्टि के आरम्भ में मानव जाति के लिए ऋषभदेव जी ने देख सकते थे और अहिंसा की स्थापना करना चाहते थे विशेष पुरुषार्थ किया था। विवाह व्यवस्था, पाक शास्त्र, | विश्व का प्राचीनतम धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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