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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि कार्य-कारण विज्ञान परिणमन करते हैं। कोई एक किसी अन्य का परिणमन किसी भी वैज्ञानिक व्यवस्था में कारण-कार्य का नहीं करता। मिथ्यात्व, असंयम, कपाय व योग के उदय पुद्गल के परिणाम है और जीव अपने अज्ञान के कारण प्रतिपादन नितान्त आवश्यक है। जैसा कारण होता है, वैसा कार्य होता है। जैसा बीज होता है, वैसा ही वृक्ष उस भाव रूप परिणमन करता है, नवीन पुद्गल उसी समय स्वयमेव ज्ञानावरणादि कर्म रूप परिणमन करते हैं होता है, यह व्यवस्था कारण कार्य संबंध से जानी जाती और जीव के साथ बंधते हैं। इस तरह जीव स्वयं अपने है। कोई कहता है कार्य पुरुषार्थ से होता है, तो कोई अज्ञानमय भावों का कारण स्वयं ही होता है और कर्म का काल से, तो कोई स्वभाव से, तो अन्य कोई कर्म से होता बंध करता है। ज्ञानी जीव की / चैतन्यमय आत्मा की है, तो कोई होनहार से । वास्तव में देखा जाय तो कोई मान्यता इतनी दृढ़ होती है कि वह कर्म, निमित्त, राग, कार्य किसी एक के कारण से नहीं होता है, उक्त पांचों पर्याय, अवस्था आदि किसी को भी महत्व नहीं देता। बातें अपना-अपना कार्य करते हैं, यही वस्तु स्वतंत्रता है, उसका सर्वस्व तो चैतन्यमय आत्मा है, उसमें लीनता ही वैज्ञानिकता है या स्वचालित वस्तु-व्यवस्था है। मोक्ष का कारण है। यह कारण-कार्य वस्तु स्वतंत्रता का यह लोक कर्म योग्य पुद्गलों से भरा हुआ है लेकिन । विज्ञान है। वे कर्म बंध के कारण नहीं है, क्योंकि ऐसा होता तो मोक्ष में भी सिद्ध भगवान् के कर्म बंध का प्रसंग बन सकता कर्म सिद्धांत - एकान्तवाद है। क्योंकि कार्मण वर्गणा तो सिद्ध शिला में भी हैं। मन, अन्य मतों में जैसे जगत् का कर्ता ईश्वर माना जाता वचन व काय यदि कर्म बंध का कारण हो तो अरहंत है। वैसे ही, कर्म की एकान्तवादी मान्यता के अनुसार भगवान् के भी बंध का प्रसंग बनता है क्योंकि उनके मन, कर्म ही आत्मा को अज्ञानी करता है, क्योंकि ज्ञानावरणीय वचन काय हैं। जीव का घात यदि कर्म बंध का कारण कर्म के उदय बिना अज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। है तो साध जो समिति आदि में तत्पर हैं, उनके भी उसी तरह कर्म ही आत्मा को ज्ञानी करता है क्योंकि आहार, विहार आदि में जीव हिंसा है। अतः उनको मोक्ष ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से ऐसा होता है। कर्म से नहीं हो सकता क्योंकि बंध होता रहेगा। इस प्रकार यह ही जीव सोता है क्योंकि निंद्राकर्म के उदय से जाव का सिद्ध होता है कि कर्म से जीव को बंध नहीं है। जीव के नींद आती है और कर्म ही जीव को जगाता है क्योंकि उपयोग में राग आदि के जो परिणाम हैं, उससे बंध होता निद्राकर्म के क्षयोपशम के बिना ऐसा नहीं हो सकता। है। जैसे कोई रेत में व्यायाम करे तो रेत उसके चिपकती सातावेदनीय कर्म के उदय से जीव सुखी होता है और या बंध नहीं करती है, लेकिन वही व्यक्ति यदि तेल मर्दन असातावेदनीय कर्म से जीव दुःखी होता है। मिथ्यात्व कर्म कर रेत में व्यायाम करे तो धूलिबंध का प्रसंग अवश्य के उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है और सम्यक्त्व कर्म के बनता है। उदय से जीव सम्यकदृष्टि होता है। चारित्र मोहनीय कर्म के मिथ्यात्व आदि कर्म का उदय होना, नवीन कर्म के उदय से जीव असंयमी होता है। पुरुषवेद कर्म से जीव स्त्री पदगलों का परिणमन व बंधना और जीव का अपने चाहता है और स्त्री वेद कर्म के उदय से पुरुष की चाह अज्ञान भावरूप परिणमन - ये तीनों बातें एक साथ एक होती है। कर्म ही जीव को चारों गतियों में भ्रमण कराता समय में होती है। तीनों स्वतंत्र अपने आप अपने रूप ही है। यश, धन, सन्तान, परिवार आदि सब कर्म के उदय से ८० कर्म सिद्धांत की वैज्ञानिकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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