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जैन एवं पातंजल योग से संबद्ध इन तीनों विधाओं की गहराई में जाने से अनेक दार्शनिक तथ्यों का प्राकट्य संभाव्य है ।
एकत्व - वितर्क अविचार
पूर्वर-विशिष्ट ज्ञानी पूर्वश्रुत - विशिष्ट ज्ञान के किसी एक परिणाम पर चित्त को स्थिर करता है । वह शब्द, अर्थ, मन, वाक् तथा देह पर संक्रमण नहीं करता' । वैसा ध्यान एकत्व वितर्क अविचार की संज्ञा से अभिहित होता है। पहले में पृथक्त्व है अतः वह सविचार है । दूसरे में एकत्व है। इस अपेक्षा से उसकी अविचार संज्ञा है । दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि पहले में वैचारिक संक्रम है, दूसरे में असंक्रम । आचार्य हेमचंद्र ने इन्हें पृथक्त्व श्रुत सविचार तथा एकत्व श्रुत अविचार की संज्ञा से अभिहित किया है । २
महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित निर्वितर्क-समापत्ति एकत्ववितर्क अविचार से तुलनीय है। पतंजलि लिखते हैं - जव स्मृति परिशुद्ध हो जाती है अर्थात् शब्द और प्रतीति
स्मृति लुप्त हो जाती है चित्तवृत्ति केवल अर्थमात्र काध्येय मात्र का निर्भास करानेवाली - ध्येय मात्र के स्वरूप को प्रत्यक्ष करानेवाली होकर स्वयं स्वरूप शून्य की तरह बन जाती है, तब वैसी स्थिति निर्वितर्क-समापत्ति से संज्ञित होती है । ३
महर्षि पतंजलि के अनुसार यह विवेचन स्थूल ध्येय पदार्थों की दृष्टि से है । जहाँ ध्येय पदार्थ सूक्ष्म हो, वहाँ उक्त दोनों की संज्ञा सविचार और निर्विचार समाधि हो जाती है ।
जैन साधना और ध्यान
जैन संस्कृति का आलोक
निर्विचार समाधि में अत्यंत वैशद्य-नैर्मल्य रहता है। अतः योगी उसमें अध्यात्म प्रसाद - आमुल्लास प्राप्त करता है । उस समय योगी की प्रज्ञा ऋतंभरा हो जाती है । ऋतम् का अर्थ सत्य, स्थिर या निश्चित है। वह प्रज्ञा या बुद्धि सत्य को ग्रहण करनेवाली होती है । उसमें संशय या भ्रम का लेश भी नहीं रहता। उस ऋतंभरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कारों के प्रभाव से अन्य संस्कारों का अभाव हो जाता है । अंततः ऋतंभरा प्रज्ञा से जनित संस्कारों में भी आसक्ति न रहने के कारण उनका भी निरोध हो जाता है । यों समस्त संस्कार निरुद्ध हो जाते हैं । फलतः संसार के बीज का सर्वथा अभाव हो जाने से निर्बीज समाधि दशा प्राप्त होती है ।
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इस संबंध में जैन दृष्टिकोण कुछ भिन्न है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा पर जो कर्मावरण छाये हुए हैं उन्हीं के कारण उसका शुद्ध स्वरूप आवृत्त है। ज्यों ज्यों उन आवरणों का विलय होता जाता है, आत्मा की वैभाविक दशा छूटती जाती है और स्वाभाविक दशा उद्भासित होती जाती है ।
१. तत्र शब्दार्थ ज्ञान विकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः । - योगसूत्र १.४२ २. ज्ञेयं नानात्वश्रुत विचारमैक्य श्रुताविचारं च ।
योगशास्त्र ११.५
सूक्ष्म क्रियमुत्सम क्रियमिति भेदेश्चतुर्धा तत् । । ३. स्मृति परिशुद्ध स्वरूप शून्येवार्थ मात्र निर्मासा निर्वितर्का । - - योगसूत्र १.४३ ४. एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषय व्याख्याता - योगसूत्र १.४४
आवरण के अपचय तथा नाश के जैन दर्शन में तीन क्रम हैं क्षय, उपशम तथा क्षयोपशम । किसी कार्मिक आवरण का सर्वथा नष्ट या निर्मूल हो जाना क्षय, अवधि विशेष के लिए उपशांत मिट जाना या शांत हो जाना उपशम एवं कर्म की कतिपय प्रकृतियों का सर्वथा क्षीण नष्ट हो जाना तथा कतिपय प्रकृतियों का अवधि विशेष के लिए उपशांत हो जाना क्षयोपशम कहा जाता है । कर्मों के उपशम से जो समाधि अवस्था प्राप्त होती है, वह सबीज है क्योंकि वहाँ कर्म बीज का सर्वथा उच्छेद या
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