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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि तत्त्वार्थ सूत्र में ध्यान की व्याख्या यहाँ एकाग्र चिंतन के साथ उत्तम संहनन की जो आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान की जो बात कही गई है, उसका आशय ध्यान के अनवरुद्ध परिभाषा की है, उसके अनुसार "अंतःकरण की वत्ति का सधने से है। ध्यान की चिरस्थिरता, अविचलता और किसी एक विषय में निरोध-स्थापन-एकाग्रता ध्यान है।" अभग्नता की दृष्टि से ही आचार्य उमास्वाति ने यह कहा है अन्यथा यत् किञ्चित् एकाग्र चिंतन तो हर किसी के __उन्होंने चैतसिक वृत्ति की एकाग्रता के साथ अपनी सधता ही है। पारिभाषिक रूप में जिसे उत्तम संहनन परिभाषा में एक बात और कही है, जो बड़ी महत्वपूर्ण कहा गया है, वह आज किसी को प्राप्त नहीं हैं। वैसी है। वे कहते हैं कि ध्यान के साधने के लिए व्यक्ति का स्थिति में आज ध्यान का अधिकारी कोई हो ही नहीं दैहिक संहनन उत्तम कोटि का होना चाहिए। पाता। फिर आचार्य हरिभद्र, हेमचंद्राचार्य, शुभचंद्र आदि __ “संहनन" जैन शास्त्रों का एक पारिभाषिक शब्द है, महामनीषी, जिन्होंने ध्यान पर काफी लिखा है, वैसा कैसे जो शरीर के संघटन-विशेष के अर्थ में प्रयुक्त है। यहाँ करते? सामान्यतः एकाग्रचिंतन मूलक साधना या ध्यान यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि ध्यान, जिसका संबंध । का अधिकारी अपनी शक्ति, मनोबल, संकल्पनिष्टा के विशेषतः मन के साथ है, दैहिक दृढ़ता से कैसे जुड़े? कुछ अनुसार प्रत्येक योगाभिलाषी योगानुरागी पुरुष है। बारीकी में जाएं तो हमें यह प्रतीत होगा कि मन की ध्यान के भेद स्वस्थता के लिए देह की स्वस्थता और शक्तिमत्ता का भी महत्व है। इसका अर्थ यह नहीं कि सबल-प्रबल देह का जैन परंपरा ध्यान के आर्त, रौद्र, धर्म तथा शुक्ल ये धनी स्वभावतः उच्च मनोबल का भी धनी होगा। पर, चार भेद स्वीकार करती है। २ उपादेयता की दृष्टि से इन इतना अवश्य है कि जिसका दैहिक स्वास्थ्य समृद्ध हो, चारों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है, एकवह यदि ध्यान साधना में अपने को लगाए, तो एक आर्त्त, रौद्र तथा दूसरा - धर्म-शुक्ल ध्यान । जीवन शुद्धि, दुर्वल, अस्वस्थ काय मनुष्य की अपेक्षा शीघ्र तथा अधिक अंतःपरिष्कार या मोक्ष की दृष्टि से धर्म एवं शुक्ल ध्यान सफल होगा। अस्वस्थ और अनुत्तम संहननमय शरीर के उपादेय है।३ व्यक्ति में मन की स्थिरता इसलिए कम हो जाती है कि आर्त तथा रौद्र अशुभ बंध के हेतु हैं। इसलिए वे वह देहगत अभाव, अल्पशक्तिमत्ता आदि के कारण समय- अनुपादेय एवं अश्रेयष्कर हैं। पर, ध्यान की कोटि में तो समय पर अस्थिर या विचलित होता रहता है। आते ही हैं। क्योंकि मन की एकाग्रता, चाहे किसी भी हठयोग में देह-शुद्धि पर जो विशेष जोर दिया गया। कारण से हो, वहाँ है। है उसका तात्पर्य यही प्रतीत होता है कि दूषित, मलग्रस्त आर्त और रौद्रध्यान जब अनुपादेय एवं अश्रेयस्कर और अस्वस्थ देह राजयोग जो ध्यान चिन्तनमूलक है, के हैं, तो उनके संबंध में विशेष जानने की क्या आवश्यकता योग्य नहीं होता। उत्तम संहनन की बात से यह तुलनीय है? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है, किंतु यहाँ विशेषरूप से समझने की बात यह है कि साधारणतः मनुष्य की एक १. उत्तम संहननस्यैकाग्र चिन्तानिरोधो ध्यानम्-तत्त्वार्थ सूत्र ६.२७ २. आर्त-रौद्र-धर्म शुक्लानि। - तत्त्वार्थसूत्र ६-२६ ___३. परे मोक्ष हेतू! – तत्त्वार्थसूत्र ६-३० जैन साधना और ध्यान ६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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