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________________ जैन संस्कृति का आलोक यह सत्य है कि श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी शब्दरूपों के आधार पर उस भाषा के शब्द रूपों को भाषा में कालक्रम में परिवर्तन हुए हैं और उस पर महाराष्ट्री समझाते हैं, वही उसकी प्रकृति कहलाते हैं। यह सत्य है प्राकृत की 'य' श्रुति का प्रभाव आया है, किन्तु यह कि बोली का जन्म पहले होता है, व्याकरण उसके बाद मानना पूर्णतः मिथ्या है कि श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी बनता है। शौरसेनी अथवा प्राकृत की प्रकृति को संस्कृत से अर्धमागधी में रूपान्तरण हुआ है। वास्तविकता यह है मानने का अर्थ इतना ही है कि इन भाषाओं के जो भी कि अर्धमागधी आगम ही माथुरी और वल्लभी वाचनाओं व्याकरण बने हैं, वे संस्कृत शब्द रूपों के आधार पर बने के समय क्रमशः शौरसेनी और महाराष्ट्री से प्रभावित हुए। हैं। यहाँ पर भी ज्ञातव्य है कि प्राकृत का कोई भी व्याकरण प्राकृत के लिखने या बोलने वालों के लिए नहीं टाटिया जी जैसा विद्वान इस प्रकार की मिथ्या धारणा बनाया गया, अपितु उनके लिए बनाया गया, जो सस्कृत को प्रतिपादित करे कि शौरसेनी आगम ही अर्धमागधी में में लिखते या बोलते थे। यदि हमें किसी संस्कृत के रूपान्तरित हुए - यह विश्वसनीय नहीं लगता है। यदि जानकार व्यक्ति को प्राकृत के शब्द या शब्दरूपों को टाटिया जी का यह कथन कि 'पालि त्रिपिटक और समझाना हो, तो हमें उसका आधार संस्कृत को ही बनाना अर्धमागधी आगम मूलतः शौरसेनी में थे और फिर पालि होगा और उसीके आधार पर यह समझाना होगा कि और अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए' हैं, तो उन्हें या सुदीप संस्कृत के किस शब्द से प्राकृत का कौन सा शब्द रूप जी को इसके प्रमाण प्रस्तुत करने चाहिए। वस्तुतः जब कैसे निष्पन्न हुआ है। इसलिए जो भी प्राकृत व्याकरण किसी बोली को साहित्यिक भाषा का रूप दिया जाता है, निर्मित किये गये, अपरिहार्य रूप से वे संस्कृत शब्दों या तो एकरूपता के लिए नियम या व्यवस्था आवश्यक होती शब्द रूपों को आधार मानकर प्राकत शब्द या शब्द रूपों हैं और यही नियम भाषा का व्याकरण बनाते हैं। विभिन्न की व्याख्या करते हैं। संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहने प्राकृतों को जब साहित्यिक भाषा का रूप दिया गया, तो का इतना ही तात्पर्य हैं। इसी प्रकार जब मागधी, पैशाची उनके लिए भी व्याकरण के नियम आवश्यक हए और ये या अपभंश की 'प्रकृति' शौरसेनी को कहा जाता है तो व्याकरण के नियम मुख्यतः संस्कृत से गृहीत किये गये। उसका तात्पर्य होता है, प्रस्तुत व्याकरण के नियमों में इन जब व्याकरणशास्त्र में किसी भाषा की प्रकृति बताई भाषाओं के शब्द रूपों को शौरसेनी शब्दों को आधार जाती है, तब वहाँ तात्पर्य होता है कि उस भाषा के मानकर समझाया गया है। प्राकृत प्रकाश की टीका में व्याकरण के नियमों का मूल आदर्श किस भाषा के शब्दरूप वररुचि ने स्पष्टतः लिखा है - शौरसेन्या ये शब्दास्तेषां हैं? उदाहरण के रूप में जब हम शौरसेनी के व्याकरण की प्रकृतिः संस्कृतम् (१२/२) अर्थात् शौरसेनी के जो शब्द हैं चर्चा करते हैं तो यह मानते हैं कि उसके व्याकरण का उनकी प्रकृति या आधार संस्कृत शब्द हैं। आदर्श अपनी कुछ विशेषताओं को छोड़कर, जिसकी यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्राकृत में तीन प्रकार के चर्चा उस भाषा के व्याकरण में होती है, संस्कृत के शब्द शब्द रूप मिलते हैं - तत्सम, तद्भव, और देशज । देशज रूप हैं। शब्द वे हैं जो किसी देश विशेष में किसी विशेष अर्थ में किसी भी भाषा का जन्म बोली के रूप में पहले होता प्रयुक्त हैं। इनके अर्थ की व्याख्या के लिये व्याकरण की है। फिर बोली से साहित्यिक भाषा का जन्म होता है। जब कोई आवश्यकता नहीं होती। तद्भव शब्द वे हैं जो साहित्यिक भाषा बनती है, तब उसके लिए व्याकरण के संस्कृत शब्दों से निर्मित हैं, जबकि संस्कृत के समान शब्द नियम बनाये जाते हैं, ये व्याकरण के नियम जिस भाषा तत्सम हैं। संस्कृत व्याकरण में दो शब्द प्रसिद्ध हैं - | जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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