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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि णकार एवं 'त', द होने के प्रयोग का अभाव यही सिद्ध करता है कि दिगम्बर आगमों एवं नाटकों की शौरसेनी का जन्म ईसा की तीसरी शती के पूर्व का नहीं है, जबकि नकार प्रधान अर्धमागधी का प्रयोग तो अशोक के अभिलेखों से अर्थात् ई.पू. तीसरी शती से सिद्ध होता है। इससे यही फलित होता हैं कि अर्धमागधी आगम प्राचीन थे। आगमों का शब्द रूपान्तरण अर्धमागधी से शौरसेनी में हुआ है, न कि शौरसेनी से अर्धमागधी में। दिगम्बर मान्य आगमों की वह शौरसेनी जिसकी प्राचीनता का बढ़-चढ़ कर दावा किया जाता है, वह अर्धमागधी और महाराष्ट्री दोनों से ही प्रभावित है और न केवल भाषायी स्वरूप के आधार पर, वरन् अपनी विषय-वस्तु के आधार पर भी ईसा की चौथी-पाँचवीं शती के पूर्व की नहीं है। क्योंकि, कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में और मूलाचार षट्खण्डागम और भगवती आराधना में गुणस्थान का सिद्धान्त मिलता है, जो लगभग पाँचवीं-छठी शती में अस्तित्व में आया है। ____ यदि शौरसेनी प्राचीनतम प्राकृत है, तो फिर सम्पूर्ण देश में ईसा की तीसरी चौथी शती तक का एक भी अभिलेख शौरसेनी प्राकृत में क्यों नहीं मिलता? अशोक के अभिलेख, खारवेल के अभिलेख, बलडी का अभिलेख और मथुरा के शताधिक अभिलेख - कोई भी तो शौरसेनी प्राकृत में नहीं हैं। इन सभी अभिलेखों की भाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी ही है। अतः उसे अर्धमागधी तो कहा जा सकता है, किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं कहा जा सकता है। अतः प्राकृतों में अर्धमागधी ही प्राचीन है, क्योंकि मथुरा के प्राचीन अभिलेखों में भी नमो अरहंतानं, नमो वधमानस आदि अर्धमागधी शब्द रूप मिलते हैं। श्वेताम्बर आगमों और अभिलेखों में आये 'अरहंतानं' पाठ का तो प्राकत विया में खोटे सिक्के की तरह बताया गया हैं। इसका अर्थ है कि यह पाठ शौरेसनी का नहीं है (प्राकृत विद्या अक्तूबर - दिसम्बर ६४ पृ.१०-११) अतः शौरसेनी उसके बाद ही विकसित हुई है।) शौरसेनी आगम और उनकी प्राचीनता जब हम आगम की बात करते हैं तो हमें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि आचांराग आदि द्वादशांगी जिन्हें श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय परम्परा आगम कहकर उल्लेखित करती है, वे सभी मूलतः अर्धमागधी में निबद्ध हुए हैं। चाहे श्वेताम्बर परम्परा में नन्दीसूत्र में उल्लेखित आगम हों, चाहे मूलाचार, भगवती आराधना और उनकी टीकाओं में या तत्त्वार्थ और उसकी दिगम्बर टीकाओं में उल्लेखित आगम हो, अथवा अंगपण्णति और धवला के अंग और अंग-बाह्य के रूप में उल्लेखित आगम हों, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था। हाँ, इतना अवश्य है कि इनमें से कुछ के शौरसेनी प्राकृत से प्रभावित संस्करण माथुरी वाचना लगभग चतुर्थ शती के समय अस्तित्व में अवश्य आये थे, किन्तु इन्हें शौरसेनी आगम कहना उचित नहीं होगा, वस्तुतः ये आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों के ही शौरसेनी प्रभावित संस्करण थे, जो यापनीय परम्परा में मान्य थे और जिनका भाषिक स्वरूप और कुछ पाठ भेदों को छोड़कर श्वेताम्बर मान्य आगमों से समरूपता थी। इनके स्वरूप आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने "जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय" नामक ग्रन्थ के तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में की है। पाठक उसे वहाँ देख सकते हैं। वस्तुतः आज जिन्हें हम शौरसेनी आगम के नाम से जानते है, उनमें मुख्यतः निम्नलिखित ग्रन्थ आते हैं: अ. यापनीय आगम १. कसायपाहुड लगभग ईसा की चौथी-पाँचवी शती, गुणधर २. षटखण्डागम, ईसा की पाँचवीं शती का उत्तरार्ध, __पुष्पदंत और भूतबली जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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