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________________ जैन संस्कृति का आलोक समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, सादिक, वामन, कुब्जक और हुंडक (विध आकार) संस्थान । ७. संहनन नामकर्म जिसके उदय से हड्डियों की संधि में बंधन विशेष होता है वह संहनन नामकर्म है। इसके छह भेद हैं- १. वज्रऋषभनाराच, २. ऋषभनाराच, ३.नाराच, ४.अर्द्धनाराच, ५. कीलक और ६. असंप्राप्तासृपटिका / सेवार्त संहनन । ८. अंगोपांग नामकर्म जिस कर्म के उदय से अंग और उपांगों की स्पष्ट रचना हो वह अंगोपांग नामकर्म है। इसके तीन भेद हैं - औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर अंगोपांग। ६. वर्ण नामकर्म ___ जिस कर्म के उदय से शरीर में कृष्ण, नील, रक्त, हरित और शुक्ल-ये वर्ण (रंग या रूप) उत्पन्न हों वह वर्ण नामकर्म है। इन ५ वर्गों से ही इसके पाँच भेद बनते हैं। जिस कर्म के उदय से शरीर के पुद्गलों में कृष्णता प्राप्त होती है वह कृष्णवर्ण नामकर्म है। इसी तरह अन्य १२. स्पर्श नामकर्म __ जिस कर्मस्कन्ध के उदय से जीव के शरीर में उसकी जाति के अनुरूप स्पर्श उत्पन्न हो। जैसे सभी उत्पल, कमल आदि में प्रतिनियत स्पर्श देखा जाता है। इसके आठ भेद हैं - कर्कश, मृदु, गुरू, लघु, स्निग्ध, रुक्ष, शीत और ऊष्ण । १३. आनुपूर्वी नामकर्म जिस कर्म के उदय से विग्रहगति में पूर्वशरीर (मरण से पहले के शरीर का) आकार रहे उसका नाम आनुपूर्वी है। इस कर्म का अभाव नहीं कहा जा सकता क्योंकि विग्रहगति में उस अवस्था के लिए निश्चित आकार उपलब्ध होता और उत्तम शरीर, ग्रहण करने के प्रति गमन की उपलब्धि भी पाई जाती है। इसके चार भेद हैंनरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगति, प्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी । १४. अगुरू लघु नामकर्म जिसके उदय से यह जीव अनन्तानन्त पुद्गलों से पूर्ण होकर भी लोहपिण्ड की तरह गुरू (भारी) होकर न तो नीचे गिरे और रूई के समान हल्का होकर ऊपर भी न जाय उसे अगुरूलघु नामकर्म कहते हैं। १०. रस नामकर्म इसके उदय से शरीर में जाति के अनुसार जैसे नीबू, नीम आदि में प्रतिनियत तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर रस उत्पन्न होते हैं। यही इस नामकर्म के पाँच भेद है। ११. गन्ध नामकर्म जिसके उदय से जीव शरीर में उसकी जाति के अनुसार गन्ध उत्पन्न हो वह गन्ध नामकर्म है। इसके दो भेद हैं - सुगन्ध और दुर्गन्ध । १५. उपघात नामकर्म "उपेत्य घातः उपघातः" अर्थात् पास आकर घात होना उपघात है। जिस कर्म के उदय से अपने द्वारा ही किये गये गलपाश आदि बंधन और पर्वत से गिरना आदि निमित्तों से अपना घात हो जाता है वह उपघात नामकर्म है। अथवा जो कर्म जीव को अपने ही पीड़ा में कारणभूत बड़े-बड़े सींग, उदर आदि अवयवों को रचता है वह उपघात है। | जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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