SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 471
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन संस्कृति का आलोक -प्रवचनसार ११७ भी होता है। सुन्दर, विकृत, छोटा, बड़ा शरीर आदि सब शरीर योग्य कर्म वर्गणाओं को ग्रहण करना, यही जन्म शुभाशुभ नामकर्म के उदय से बनते हैं। इस प्रकार विश्व का प्रारम्भ है। कर्मों के ही उदय से वह जीव बिना चाहे की विचित्रता में नामकर्म रूपी चितेरे की कला अभिव्यक्त हुए मरण करके दूसरी पर्याय में उत्पन्न होता है। वहाँ होती है न कि ईश्वरादि किसी अन्य विशेष की। इसीलिए वर्गणाओं का ग्रहण नामकर्म के उदय से स्वयमेव होता तो जिनसेनाचार्य ने कहा है रहता है। ये वर्गणाएँ स्वयं ही पर्याप्ति, निर्माण, अंगोपांग आदि के उदय से औदारिक या वैक्रियिक शरीर के विधिः स्रष्टा विधाता च दैवकर्म पुराकृतम् । आकार परिणमन कर जाती है। जैसे - जीव के अशुद्ध ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञेयाः कर्मवेधसः।। भावों का निमित्त पाकर लोक में सर्वत्र फैली हुई कार्मण - महापुराण ३७/४ वर्गणाएँ स्वयं ही अपने-अपने स्वभावानुसार ज्ञानावरणादि नामकर्म का स्वरूप पूर्वोक्त आठ कर्मरूप परिणमन कर जाती है। इसी तरह नामकर्म के विशेष विवेचन के पूर्व सर्वप्रथम उसका नाम कर्म तथा गोत्रकर्म के उदय से भिन्न-भिन्न जाति की वर्गणाएँ स्वयं अनेक प्रकार के देव, नारकी. मनष्य. स्वरूप जान लेना भी आवश्यक है। आचार्य कुन्दकुन्द ने तिर्यंचों के शरीर के आकार रूप परिणमन कर जाती हैं। कहा है इस तरह यह शरीर आत्मा का कोई कारण या कार्य नहीं कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण। है, कर्मों का ही कार्य है। अभिभूय णरं तिरियं णेरियं वा सुरं कुणदि।। कार्मण शरीर का निर्माण सूक्ष्म बीज रूप अदृश्य वर्गणायें ही करती हैं। जैसे महान् वटवृक्ष का अत्यन्त अर्थात् नाम संज्ञा वाला कर्म जीव के शुद्ध स्वभाव । छोटा बीज या महासागर का एक बूँद जल, वृक्ष अथवा को आच्छादित करके उसे मनुष्य, तिर्यञ्च, नारकी अथवा सागर की सारी प्रकृति, गुण, ढाँचा आदि अपने भीतर देवरूप करता है। धवला टीका (६/१, ६ तथा १०/१३/३) आत्मसात् किए हुए रहता है, वैसे ही ये बीज कार्मण में कहा है जो नाना प्रकार की रचना निर्वृत्त करता है वह वर्गणाएँ भी अलग-अलग उन सभी विभिन्न रासायनिक नामकर्म है। शरीर, संस्थान, संहनन, वर्ण, गन्ध आदि संगठनों की प्रतिनिधि स्वरूप उनके विभिन्न गुण-प्रभाव कार्यों के करने वाले जो पुद्गल जीव में निविष्ट हैं वे से युक्त रहती हैं। इन्हीं बीज रूप कार्मण वर्गणाओं द्वारा "नाम" इस संज्ञावाले होते हैं। आचार्य पूज्यपाद ने परिचालित या प्रेरित हमारे मन, वचन और शरीर (इन्द्रियों) सर्वार्थिसिद्धि (६/१, ६ तथा १०/१३/३) में बतलाया है कि द्वारा होने वाले सभी कार्य या कर्म होते हैं। इस तरह आत्मा का नारक आदि रूप नामकरण करना नामकर्म की हमारे सभी कर्मों का उद्गम स्थान-ये आंतरिक रासायनिक प्रकृति (स्वभाव) है, जो आत्मा को नमाता है या जिसके संगठन रूप वर्गणायें (मॉलीक्यूलस) ही हैं। अब यहाँ द्वारा आत्मा नमता है, वह “नामकर्म" है। “नामकर्म" की बयालीस प्रकृतियों का स्वरूप विवेचन इस नामकर्म की बयालीस प्रकृतियाँ तथा तैरानवें प्रस्तुत है। उत्तर प्रकृतियाँ है। इनका विश्लेषण आगे किया जाएगा। ___ नामकर्म और उसकी प्रकृतियाँ इनमें शरीर नामकर्म के अन्तर्गत शरीर के पाँच भेदों का नामकर्म की बयालीस प्रकृतियाँ हैं। इन्हें पिण्ड प्रकृतियाँ निरूपण विशेष दृष्टव्य है । वस्तुतः औदारिक या वैक्रियिक भी कहते हैं। ये इस प्रकार हैं - गति, जाति, शरीर, | जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में ३७ jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy