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________________ जैन संस्कृति का आलोक मिलता है। श्रावक-श्राविकाओं के लिए इस समय घर- गृहस्थी एवं व्यापार के जटिल कार्यों से तनावमुक्त रहने के अवसर मिलते हैं, अतः वे साधु-संघ के सान्निध्य में समय व्यतीत करने की भूमिका ही तैयार नहीं करते, बल्कि अपने सन्तुलित जीवन से अपने बच्चों के/परिवार के अन्य सदस्यों तथा पड़ोसियों के मन में भी एक प्रभावक धार्मिक छाप छोड़ते हैं। वर्षावास : साहित्य-विकास की यात्रा __मुझे मध्यकालीन हस्तलिखित अप्रकाशित कुछ पाण्डुलिपियों के अध्ययन का अवसर मिला है। उनकी प्रशस्तियों एवं पुष्पिकाओं में समकालीन आश्रयदाताओं, प्रतिलिपिकर्ताओं एवं नगरश्रेष्ठियों की चर्चाएँ आती है। उनके अनुसार श्रावक-श्राविकाएँ साधु एवं साध्वियों के आदेश-उपदेश से अनेक त्रुटित अथवा जीर्ण-शीर्ण पोथियों का प्रतिलिपि-कार्य या तो स्वयं करते अथवा विशेषज्ञों द्वारा करवाते रहते थे। ऐसी पोथियों के प्रतिलिपि-कार्य का प्रारम्भ अथवा पूर्णता प्रायः चातुर्मास के समय ही होता था। साधु-साध्वियों के लिए भी चातुर्मास काल में गमनागमन न करने के कारण अपनी दैनिक-चर्या के अतिरिक्त भी पर्याप्त समय मिलता है। वे प्रायः मन्दिरों की परिक्रमाओं अथवा उपाश्रयों के शान्त, एकान्त एवं निराकुल आश्रयस्थलों में रहते हैं। पुराकाल में तो वे स्वतन्त्र चिन्तन अथवा ग्रन्थ-लेखन का कार्य करते अथवा करवाते थे, या फिर प्राचीन उपलब्ध शास्त्रों का स्वाध्याय, पठन-पाठन, मनन एवं चिन्तन किया करते थे। यही नहीं, इन शास्त्रों में से जो अत्यन्त महत्व का होता था, उसकी आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व मुद्रणालयों का आविष्कार न होने के कारण अनेकानेक प्रतिलिपियों को करवाकर वे उन्हें दूरदूर के मन्दिरों अथवा शास्त्र-भण्डारों में भिजवाने की प्रेरणा भी श्रावक-श्राविकाओं को देते रहते थे। यदि किसी ग्रन्थ का कोई अंश चूहे या दीमक खा जाते थे, तो साधुगण उतने अंश का स्वयं प्रणयन कर उसे सम्पूर्ण कर दिया करते थे और उसकी अनेक प्रतिलिपियाँ करवाकर उन्हें देश के कोने-कोने में भिजवा देने की प्रेरणा देते थे। प्राचीन ग्रन्थों की प्रशस्तियों एवं पुष्पिकाओं में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। ____ मध्यकाल में भारत में जब राजनैतिक अस्थिरता यहाँ का एक स्वाभाविक-क्रम बन गयी थी तथा साम्प्रदायिक मदान्धता के कारण जैन साहित्य एवं उसकी पुरातात्विक सामग्री की विनाशलीला की गई थी, तब भी कहीं न कहीं हमारा साहित्य सुरक्षित रह गया था। उसका मूल कारण था-चातर्मासों में संघस्थ हमारे महामहिम साधक मुनियों, आचार्यो, यतियों, साध्वियों एवं भक्त श्रावक-श्राविकाओं की वही सजगता एवं जागरूकता । कष्टेन लिखितं शास्त्रं हमारे आचार्य-संघों ने निरन्तर ही दूरदृष्टि से सम्पन्न होकर यह कार्य किया। चातुर्मासों के समय इन मुनिसंघों के सान्निध्य में पिछले वर्षों की सामाजिक, साहित्यिक एवं नैतिक प्रगति एवं विकास अथवा अवनति सम्बन्धी कार्यों का सिंहावलोकन किया जाता था। उसी आधार पर अगले वर्ष की प्रगति की रूपरेखाएँ तैयार की जाती थी। साधु-साध्वी अपने समाज के भविष्य के निर्माण तथा विकास के लिए मार्गदर्शन देते थे और श्रावक-श्राविकाएँ उन्हें यथाशक्ति कार्यरूप देने का प्रयत्न करते थे। यदि ऐसा न होता तो सहस्रों जैनग्रन्थों, मूर्तियों एवं मन्दिरों के नष्ट हो जाने के बाद भी आज इतना विशाल साहित्य, मूर्तियाँ एवं मन्दिर कैसे उपलब्ध हो सके ? एक जैन साहित्य-संरक्षक एवं प्रतिलिपिकर्ता की मानसिक-पीड़ा एवं कष्ट-सहिष्णुता तथा शास्त्र-सुरक्षा के प्रति उनकी समर्पितवृत्ति का अनुमान निम्न पद्य से लगाया जा सकता है। महाकवि रइधि-कृत शौरसेनी प्राकृत में गाथा-बद्ध "सिद्धान्तार्थसार" (अद्यावधि अप्रकाशित) का प्रतिलिपिकार कहता है कि - भग्नपृष्ठि-कटि-ग्रीवा, ऊर्ध्वदृष्टिरधोमुखः। कष्टेन लिखितं शास्त्रं, यत्नेन परिपालयेत् ।। | श्रमण संस्कृति के संरक्षण में चातुर्मास की सार्थक परम्परा १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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