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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि वही बाढ़ लाने, डूबकर मरने आदि में कारण होने से उनका पुत्र है तथा अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है। वह पति है घातक भी है। कौन नहीं जानता कि अग्नि कितनी संहारक एवं जीजा भी। मामा है और भानजा भी। अब यदि है, पर वही अग्नि हमारे भोजन बनाने आदि में परम कोई उसे केवल मामा ही माने और अन्य सम्बन्धों को सहायक भी है। भूखे को भोजन प्राणदायक है, पर वही गलत ठहरादे तो यह राजेश नामक व्यक्ति का सही भोजन अजीर्ण वाले अथवा मियादी बुखार वाले बीमार परिचय नहीं है, इसमें हठधर्मिता है / अज्ञान है। महावीर आदमी के लिए विष है। मकान, किताब, कपड़ा, सभा, इस प्रकार के आग्रह को वैचारिक हिंसा कहते हैं। अज्ञान संघ, देश आदि ये सब अनेकान्त ही तो हैं। अकेली ईटों से अहिंसा फलित नहीं होती। अतः उन्होंने कहा कि या चूने-गारे का नाम मकान नहीं है। उनके मिलाप का स्याद्वाद पद्धति से प्रथम वैचारिक उदारता उपलब्ध करो। नाम ही मकान है। एक-एक पन्ना किताब नहीं है, नाना। केवल अपनी बात कहना ही पर्याप्त नहीं है, दूसरों को भी पन्नों के समूह का नाम किताब है। एक-एक सूत कपड़ा। अपना दृष्टिकोण रखने का अवसर दो। सत्य के दर्शन नहीं कहलाता। ताने-बाने रूप अनेक सूतों के संयोग को तभी होंगे। तभी व्यवहार की अहिंसा सार्थक होगी। कपड़ा कहते हैं। एक व्यक्ति को कोई सभा या संघ नहीं कहता। उनके समुदाय को ही समिति, सभा, संघ या दल सत्य को विभिन्न कोणों से जानना और कहना दर्शन आदि कहा जाता है। एक-एक व्यक्ति मिलकर जाति और के क्षेत्र में नयी बात नहीं है। किन्तु महावीर ने स्याद्वाद अनेक जातियाँ मिलकर देश बनते हैं। के कथन द्वारा सत्य को जीवन के धरातल पर उतारने का कार्य किया है। यही उनका वैशिष्ट्य है। हम सभी जानते जिस प्रकार समुद्र के सद्भाव में ही उसकी अनन्त । हैं कि हर वस्तु के कम से दो पहलु होते हैं। कोई भी बिन्दुओं की सत्ता बनती है और उसके अभाव में उन वस्तु न सर्वथा अच्छी होती है और न सर्वथा बरीबिन्दुओं की सत्ता नहीं बनती उसी प्रकार अनेकान्त रूप वस्तु के सद्भाव में ही सर्व एकान्त दृष्टियाँ सिद्ध होती हैं "दृष्टं किमपि लोकेस्मिन् न निर्दोषं न निर्गुणम् ।" और उसके अभाव में एक भी दृष्टि अपने अस्तित्व को नीम सामान्य व्यक्ति को कड़वा लगता है। वही नहीं रख पाती। आचार्य सिद्धसेन अपनी चौथी द्वात्रिशिंका रोगी के लिए औषधि भी है। अतः नीम के सम्बन्ध में में इसी बात को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रतिपादन करते हैं: कोई एक धारणा बना कर किसी दूसरे गुण का विरोध उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि सर्वदृष्टयः। करना बेमानी है। सामान्य नीम की जब यह स्थिति है तो न च तासु भवानुदीक्ष्यते प्रविभक्तासु सरित्विवोदधिः।।। संसार के अनन्त पदार्थों/अनन्त धर्मों के स्वरूप को जानकर उनका आग्रहपूर्वक कथन करना सम्भव नहीं है। महावीर ___"- जिस प्रकार समस्त नदियाँ समुद्र में सम्मिलित ने इसे गहराई से समझा था। अतः वे मनुष्य तक ही हैं उसी तरह समस्त दृष्टियाँ अनेकान्त-समुद्र में मिली हैं। सीमित नहीं रहे। प्राणी मात्र के स्पन्दन की सापेक्षता को परन्तु उन एक-एक में अनेकान्त दर्शन नहीं होता। जैसे भी उन्होंने स्थान दिया। मनुष्य की भांति एक सामान्य पृथक्-पृथक् नदियों में समुद्र नहीं दीखता।" प्राणी भी जीने का अधिकार रखता है। अपनी साधनों इसे एक अन्य उदाहरण से भी समझा जा सकता। द्वारा उसे भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है। यह महावीर है। राजेश एक व्यक्ति है। वह अपने पिता की अपेक्षा के स्याद्वाद की फलश्रुति है। अनेकान्तवाद : समन्वय का आधार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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