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________________ प्रवचन-पीयूष-कण संगम ने महावीर को असह्य और असंख्य कष्ट दिए। पर महावीर तुनके नहीं। विचलित नहीं हुए। उन्होंने संगम को उत्तर नहीं दिया। अपने हृदय को भी उसके लिए मैला नहीं किया। सहिष्णुता से साधनाशील बने रहे। संगम का दुष्ट हृदय परिवर्तित होगया। अर्थात् उसका हृदय रूपी कांटा ओंधा हो गया। सहिष्णता एक महान गण है। इस गण के बिना आपका जीवन नरक बन जाएगा। सहिष्णु बनिए। सुखी बनिए। ... विलुप्त होती श्रद्धा आज के युग में श्रद्धा का पक्ष कमजोर और तर्क का पक्ष मजबूत हो गया है। व्यक्ति प्रत्यक्ष पर अधिक विश्वास करने लगा है। वह परोक्ष पर कम विश्वास करता है। आज वह हर चीज का आकलन तर्क और बुद्धि के बल पर करना चाहता है। विज्ञान ने, भौतिकवाद ने मनुष्य के मस्तिष्क को बदल दिया है। उसकी विचार धाराओं में परिवर्तन आ गया है। उसी परिवर्तन के कारण आज सहसा किसी बात को स्वीकार नहीं किया जाता है। विज्ञान अपने प्रत्येक सिद्धान्त को तर्क की कसौटी पर सिद्ध करता है। इसलिए उसके प्रति आज के युग के मानव में पूर्ण श्रद्धा और विश्वास का भाव है। परन्तु हम तर्क की कसौटी पर अपने सिद्धान्तों की उपयोगिता सिद्ध नहीं कर पाते हैं। हम कहते हैं - धर्म करो, शान्ति मिलेगी। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। आप वर्षों से धर्म कर रहे हैं परन्तु आपको शान्ति नहीं मिल पाई। आप सामायिक करते हैं, वर्षों से करते हैं फिर भी आपमें विषमता विद्यमान है। इससे हमारी सामायिक पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है। धार्मिक पिता को देखकर उसका पुत्र धार्मिक नहीं हो पाता है। क्यों? क्योंकि पिता धर्म क्रियाएं करके भी अपने भीतर धर्म को जन्म नहीं दे पाया है। वह धार्मिक क्रियाएं भी करता है परन्तु असत्य, हिंसा, क्रोध से भी मुक्त नहीं हुआ है। बल्ब जलेगा तो अन्धकार मिटेगा ही। बल्ब भी जल जाए और अन्धकार भी विद्यमान रहे यह नहीं हो सकता है। ___ आज धर्म के क्षेत्र में यही हो रहा है। आप धर्म भी करते हैं परन्तु पाप से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। आपकी दशा को देखकर आपकी सन्ताने धर्म से विमुख बन गई हैं। उनमें श्रद्धा का जन्म नहीं हो पाया है। महावीर की वाणी अकाट्य है। पूर्ण प्रामाणिक और असंदिग्ध है। परन्तु हमने उसे ठीक ढंग से ग्रहण नहीं किया है। हमने शब्द को तो पकड़ लिया है पर उसके भाव को ग्रहण नहीं कर पाए हैं। आज हमारी अकुशलता के कारण धर्म शब्द तो शेष है उसकी आत्मा नष्ट हो गई है। इसके कारण स्पष्ट हैं - हमने धर्म को विस्मृत कर दिया है और अपनी परम्पराओं की रक्षा में व्यस्त हो गए। धर्म को बचाने के स्थान पर हम स्वयं को बचाने के लिए प्रयत्नशील बन गए। इसी का यह परिणाम हुआ कि दर्शन तो विलुप्त हो गया प्रदर्शन शेष रह गया। ... आपस विच प्रेम ते प्यार वी नहीं, इक दूजे नाल प्यार दी गल्ल वी नहीं। दसो होर असीं की बणावणाए, सानूं मिल बैठण दा वल्ल वी नहीं।। आपोधापियां दा होवे जोर जित्थे, ओत्थे बुध वी नहीं ते बल वी नहीं। कल-कल जिस घर विच आ जावे, ओत्थे अज वी नहीं ते कल वी नहीं।। ६३ | प्रवचन-पीयूष-कण ernational Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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