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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
साधक के लिए.....मुनि के लिए धनी-निर्धन, छोटा- संवेग ही मनुष्य में यह गुण उत्पन्न करता है। बड़ा एक समान होना चाहिए। उसे समदर्शी होना चाहिए। इसीलिए संवेगी व्यक्ति हर्ष और शोक से अतीत बन इसी में उसके मुनित्व की गरिमा है। ...
जाता है। जिन वस्तुओं को पाकर आप आनन्दमग्न बन संवेग/वैराग्य
जाते हो संवेगी उन्हें पाकर आनन्दित नहीं होता है।
क्योंकि वह जानता है जो प्राप्त हो रहा है वह उसका नहीं व्यतीतो रागः विरागः।
है। जो उसका नहीं है वह सदैव उसके साथ नहीं रह राग भाव का व्यतीत हो जाना ही विराग है। सकता है। जिसकी नियति ही छुट जाना है, वियोग हो "विरागस्य भावं वैराग्यम्" विराग का भाव ही वैराग्य है। जाना है उसके संयोगग पर कैसा हर्ष? वैराग्य से अभिप्राय है - विरति भाव । वस्तु के प्रति
साधारण लोग जिन वस्तुओं या परिजनों का वियोग आसक्ति का शान्त हो जाना, मन के संकल्पों-विकल्पों का
हो जाने पर आंसू बहाते हैं संवेगी उनके वियोग पर गिर जाना ही विरति भाव है।
दुखित नहीं होता है। क्यों कि जो छुट रहा है उसे उसने संवेग का भी यही अर्थ है। संवेग मन का वह । पकड़ा ही नहीं था, अपना माना ही नहीं था। परिणाम है जो व्यक्ति की आसक्ति को तोड़ता है। मन
संवेग मोह को उपशमित करता है। ममत्व की से जो वस्तु की चाह का सम्बन्ध है संवेग उसे शान्त कर
ग्रन्थियों का उच्छेदन करता है। संवेगी व्यक्ति “मेरे पन" देता है। व्यक्ति को सहज रूप में लाने वाला है संवेग। एक विश्रुत दोहा है -
के भाव से मुक्त होता है। ज्यूं समदर्शी जीवड़ो करे कुटुम्ब प्रतिपाल ।
भगवान महावीर ने कहा – संवेग से अनुत्तर धर्म अन्तरगति न्यारो रहे, ज्यूं धाय खिलावे बाल ।।
श्रद्धा की प्राप्ति होती है। संवेग धरातल है धर्म श्रद्धा
का। इससे धर्मश्रद्धा सामान्य से विशेष हो जाती है, संवेग सिखाता है कि हमें संसार में कैसे जीना चाहिए। धाय बालक को खिलाती पिलाती है, नहलाती है, खेलाती
कमजोर से सुदृढ़ हो जाती है। है। उसका पूरा ध्यान रखती है। परन्तु हृदय से वह यह
___संवेग हमारे जीवन में घटे। संवेग ही हमें समस्त जानती और मानती है कि वह बालक उसका नहीं है। बन्धनों और सुखों-दुखों से मुक्त करके समता प्रदान कोई भी देखने वाला भ्रमित हो सकता है कि यह बालक करेगा। परम आनन्द की भूमिका पर प्रतिष्ठित करेगा। इसी का है। पर वह स्वयं भ्रमित नहीं होती। उस बालक संकल्प-विकल्प स्वतः ही शान्त हो जाएंगे। के मोह में वह बन्धती नहीं है। संसार में जीने का भी यही
___ हमें जीवन मिला है। यह अमूल्य है। इससे हमें ढंग है। संसार में रहो, परिवार में रहो पर संसार या
कटुता नहीं फैलानी चाहिए। वैमनस्य नहीं फैलाना चाहिए। परिवार को अपने भीतर प्रवेश मत करने दो। इस सत्य को विस्मृत मत करो कि संसार या परिवार तुम्हारा नहीं
प्यार का प्रसार कीजिए। मृदुता फैलाइए। इसके लिए है। खाओ, पीओ, सुख सुविधाएं भोगो पर उनसे लिप्त
सूत्र है - आलोचना । भूल हो जाए तो उसे तत्काल स्वीकार मत बनो। जग में ऐसे रहो जैसे कमल जल में रहता है।
कर लो। ऐसा करोगे तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कमल जल में रहकर भी उससे असम्पृक्त रहता है, अछूता
कि आपका जीवन बहुत सरस हो जाएगा। मधुर हो रहता है।
जाएगा। ...
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प्रवचन-पीयूष-कण
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