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________________ वास्तविकता को समझने का प्रयास कम हो गया । और अपनी अपनी मान्यता को थोपने का प्रयत्न अधिक होने लगा। जैसा उपादान वैसा निमित्त । पिता को पुत्र, पुत्र को पिता, भाई को भाई, वहिन को भाई, पति को पत्नी, गुरू को शिष्य तथा शिष्य को गुरु का, शुभ अशुभ निमित्त बन जाते है । यहाँ तक की अपना शरीर भी सुख दुख का कारण बन जाता 1 धर्म के ठेकेदार • यह व्यर्थ का ही झगड़ा है। एक धर्मगुरु कहता है, मेरे पास आओ, मैं मोक्ष दिला दूँगा। दूसरा गुरु कहता है - मैं मुक्ति दिलाऊँगा । इस प्रकार कई धर्म और मोक्ष के दावेदार, ठेकेदार, बने हुए है । पहले तो केवल गुरु ही थे, अब तो भगवान् भी बहुत हो गये हैं इस धरती पर और ये भगवान आह्वान करते हैं मेरे पास आओ, मैं मुक्ति दे दूंगा। यह व्यक्ति के साथ मज़ाक है । ❀❀❀ बाह्य वेष • वेप की व्यवस्था साधना / संयम यात्रा के निर्वाह और ज्ञान आदि साधना के लिये तथा लोक में साधक और संसारी के भेद को स्पष्ट करने के लिए है । किन्तु यह व्यवहारिक साधन है, निश्चय में, तत्त्वदृष्टि से मुक्ति के साधन ज्ञान-दर्शन चारित्र ही हैं । आजकल वेष का महत्त्व और आग्रह बढ़ जाने पर उसका दुरुपयोग भी होने लगा है। पहले निश्चित वेप वाले व्यक्ति धर्मात्मा/ साधक होने से उनका जीवन त्यागप्रधान होता था अतः जनता में विश्वसनीय होता था किन्तु कुछ दुर्बुद्धि लोग अपनी शारीरिक, मानसिक वासना सुमन वचनामृत Jain Education International सुमन वचनामृत की पूर्ति के लिये साधक का छद्म वेश धारण करने लगे हैं। सिंह के वेष में भेड़िये घूमने लगे है अतः वेष का महत्त्व घट गया। रावण ने साधु का वेष धारण करके ही जनकसुता का अपहरण किया था। इसलिये कहा गया है। कि बुद्धिमानों को केवल वेषधारी पर विश्वास नहीं करना चाहिये । ॐ ॐ ॐ ईर्ष्या • जिस प्रकार अग्नि दग्ध करती है, जलाती है, पदार्थों को तपित करती है इसी प्रकार ईर्ष्या भी हृदय, मस्तिष्क एवं नेत्रों को तप्त करती है, जलाती है। ईर्ष्या मन का असंतुलन है। दूसरे की वस्तु, इज्जत, व्यक्त्वि आदि देख कर मन सहन नहीं करता, यही ईर्ष्या है | ईर्ष्यालु परिणामतः अपने धैर्य, शान्ति, सहिष्णुता आदि गुणों का नाश कर लेता है । ❀❀❀ विविधा • व्यक्ति की साधना का लक्ष्य परमार्थ है । • यह वस्तु न मेरी है, न तेरी है । यह पौदगलिक है, भौतिक है और संयोग सम्बन्ध से प्राप्त है । ऐसी दृष्टि वाला व्यक्ति परमार्थी कहलाता है । • साधना के अभाव में आंतरिक रोग / कषाय / वासनादि दूर नहीं हो सकते। • आमोद-प्रमोद के साथ अध्यात्म ज्ञान का होना भी जरूरी है, अन्यथा मोह व आसक्ति में वृद्धि होती जायेगी, उससे जीवन की दशा दुखद हो जायेगी । • जो भोग से योग की ओर, राग से विराग की ओर मन को मोड़ने में समर्थ है तथा आत्मा और परमात्मा For Private & Personal Use Only ४३ www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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