SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुमन वचनामृत स्थिति में रहे तो समझना चाहिये कि मोक्ष के मार्ग में चल निरन्तर अखण्ड रूप से उस प्रभु के स्वरूप में ही तन्मय रहे है, लेकिन आँख के देखते ही, परिस्थिति के बदलते रहता है, एकाग्र/लीन रहता है। कैसे? जैसे पनिहारी का ही मन में कषाय भाव जागृत हो जाये तो समझो हम जन्म घट में, नट को अपने संतुलन में, पतिव्रता नारी का पति मरण के चक्कर में यू ही भटकते रहेंगे। में, चक्रवाक पक्षिणी का सूर्य में प्रतिक्षण ध्यान रहता है। कषाय ही जन्म मरण का मूल कारण है। देह धारण शुद्ध उपयोग से की गई क्रिया/धर्मानुष्ठान कर्म निर्जरा करना, देह को छोड़ना, बार-बार जन्म लेना और मरना का कारण है, इसलिये आत्मा ही चारित्र धर्म है। यही दुख का कारण है। ___जाति तो बाह्य रूप है, जाति, जन्म और शरीर ___ जो अपने शरीर में आत्मा/जीव का अनुभव करता है। निर्माण माता-पिता आदि के परिचयार्थ हो सकते हैं किन्तु वह अन्य शरीरस्थ आत्माओं में भी वैसा ही आत्म-भाव । अन्तर्मन/हृदय का परिचय तो उसके ज्ञान/ध्यान/उपदेश, अनुभव करता है। विचार, वाणी से होता है। जिस प्रकार म्यान का मूल्य व्यक्ति अन्य स्थान, व्यवहार क्षेत्रों में पाप, कर्म कर नहीं होता, इसी प्रकार जाति और देह का भी मूल्य नहीं लेता है किन्तु उसके लिये पश्चाताप और प्रायश्चित होता विदेही आत्मा का अनुभव करो, साध्य आत्मा है, देह तो साधन है। करके धर्मस्थान में बैठकर उसे छोड़ता है, शुद्धिकरण करता है किन्तु धर्मस्थान में जो व्यक्ति पाप करता है, उसके पाप का मैल वज्र की भांति कठोर हो जाता है, जिसे दूर करना अति कठिन होता है। स्वच्छन्दता जिन्हें जीने की तृष्णा नहीं, मरण का भय नहीं, स्वच्छन्द वृत्ति मूलतः मोह की उपज है। जिन्होंने लोभ आदि कषायों को जीत लिया, और जिनका मोक्ष के उपाय में प्रवर्तन है, वे आत्म-सिद्धि के मार्ग के स्वच्छन्दता/उच्छृखलता/उदण्डता को दूर करके ही उत्कृष्ट पात्र हैं। व्यक्ति आत्मभावों को प्राप्त कर सकता है। जिस प्रकार कवचधारी शिक्षित अश्व सुरक्षित रहता है, इसी प्रकार परद्रव्य अर्थात् धन, धान्य, परिवार व देहादि में साधक अपनी स्वच्छंदता का निरोध करके ही सर्व प्रकार अनुरक्ति होने से दुर्गति होती है और स्वद्रव्य अर्थात् के बंधनों से मुक्त हो सकता है। अपनी आत्मा में लीन होने से सुगति होती है। ___जो अपनी इच्छाओं का निग्रह नहीं करते हैं और यह शरीर अन्य है, मैं अन्य हूँ तथा बन्धु-बांधव स्वच्छन्द गति से विचरण करते हैं, वे आत्माएँ कर्म जाल आदि भी अन्य है ऐसी अनुभूति जिसे हो गई है, वह में बंधकर विविध भवों में भटकती हैं। आत्मज्ञानी है। आत्मज्ञान वाला व्यक्ति यही अनुभव करता है कि - ज्ञान-दर्शन आदि गुणों से संयुक्त मेरी व्यक्ति अपनी स्वच्छन्दता को रोकता है, निरोध आत्मा ही शाश्वत है शेष पदार्थ पौद्गलिक हैं, संयोग करता है। तो अवश्य ही मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, लक्षण वाले हैं। मुक्त हो जाता है। इसमें कोई संदेह की बात नहीं है। जिसने प्रभु को अपने हृदय में बसा लिया है, उसे साधना काल में भी स्वच्छन्दता को यदि प्रश्रय दिया प्रभु को याद करने की जरूरत नहीं रहती। उसका मन तो है, तो वह बंधन का ही कारण है, मुक्ति का नहीं। | सुमन वचनामृत ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy