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________________ सुमन वचनामृत संभाल कर रखना चाहिये था। किसी बाप ने अपने बेटे को रखा है क्या अब तक? या किसी पुत्र ने अपने पिता को दायमी-कायगी रखा है? उत्तर - नहीं। तो फिर नाथ कैसे? यह केवल एक सांयोगिक सम्बन्ध है, पिता और पुत्र का एक जगत का रिश्ता है / नाता है। संयोग मिलता है तो इकट्ठे हो जाते है। जब वियोग आता है तो संबन्ध टूट जाते है। संबंध टूटने के बाद कोई जोड़ने वाला नहीं है। जब वृक्ष हरा-भरा होता है तो पक्षी गण आ-आकर निवास करते हैं उस पर। लेकिन पत्र ; पुष्प, फल-विहीन वृक्ष खड़ा हो कहीं तो उस पर पक्षी भी आकर नहीं बैठते। क्यों कि छाया की शीतलता, फल आदि वहाँ नहीं मिलते। दुनिया की स्थिति भी ऐसी ही है। है? लेकिन विकृत जीवन चाहे नारी का हो या पुरुष का, साधु का हो या साध्वी का हो, जहाँ व्यक्ति जीवन मार्ग से च्युत हो गया, मार्ग भ्रष्ट हो गया, उसकी तो भगवान महावीर ने ही नहीं, सभी ने आलोचना की है। जाति समाज और राष्ट्र में समय-समय पर प्रभाव प्रबुद्ध नारी जीवन का ही रहा है, जिसने स्वयं के साथ व्यक्ति और समाज को नई दिशा दी है, मात्र धर्मक्षेत्र में ही नहीं, अपितु कर्म क्षेत्र में भी वह अग्रणी रही है। नारी जो पतिव्रता है, किसी भी सम्पद-विपद अवस्था में रहे, चाहे अमीरी में हो या गरीबी में हो संयोग में हो या वियोग में, कभी भी अपने पति को नहीं भूलती है। संघ समाज के दो पक्ष है - एक नारी का, एक पुरुष का। एक साधु का और दूसरा साध्वी का, इसमें अकेला साधु या साध्वी हो और श्रावक-श्राविका न हो तो कैसे बात बन सकती है? नारी या साध्वी के अभवा में सर्वांगीण तीर्थ नहीं बन सकता। नारी नारी जीवन के मूल्य को, उसके अस्तित्व को समझकर, स्वीकार करके ही भगवान् महावीर ने अपने धर्मसंघ में/ तीर्थ में पुरुष के साथ ही नारी को स्थान दिया था। उन्होंने किसी प्रकार का कोई संकोच नहीं किया था, जब कि समकालीन तथागत बुद्ध ने अपने संघ में नारी को सम्मिलित करने में संकोच किया था। शिष्य भिक्षु आनन्द के निवेदन को नकार दिया था। अन्ततः उन्हें इस आग्रह को स्वीकार करना ही पड़ा, किन्तु अन्तर में उपेक्षा ही थी। “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः" अर्थात् जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ पर देवता भी रमण करते हैं। अतएव नारी का जो स्थान है - बना रहना चाहिये। क्योंकि नारी “माँ” है। कहाँ किस स्थान पर नारी की जैन धर्म ने निंदा की अन्तर्जागरण अन्तर्जागरण के बिना भौतिक आकर्षण और परिणतियों का सम्बन्ध मन से अलग नहीं हो सकता, वह किसी न किसी रूप में जुड़ा हुआ ही रहता है। “मनसि शेते मनुष्यः।" अर्थात् जो चिन्तन मनन में लीन रहता है वह मनुष्य है। ___मन, बुद्धि, अहंकार आदि अन्तःकरण की वृत्तियों के जागृत होने का भाव या अवस्था जागरण है। जागरण का भाव असंयम रूप “निद्रा" से जागना है।। __आत्मा जब तक बाहरी उपाधि, मन व इन्द्रियों से पराधीन रहती है तब तक वह स्वतन्त्र, स्वाधीन नहीं होती। उसमें दिव्य प्रकाश का जागरण नहीं होता। | सुमन वचनामृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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