________________
साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
मैं- मेरा, इस अहं भाव से जो ऊपर उठ जाएगा। वह देवोपरि उच्च लोक को अनायास पा जाएगा । ।
साहित्य-मनीषी सुमन मुनिजी ने दो साहित्यिक कृतियों का सुसंपादन विवेचन पूर्वक किया है। पहली है श्रावककवि हरजसराय की मुक्तक - काव्यकृति 'देवाधि देव रचना' और दूसरी है सुश्रावक लाला रणजीतसिंह कृत वृहदालोयणाज्ञान गुटका । दोनों ही प्रसिद्ध लोकप्रिय रचनाएँ हैं । 'देवाधिदेव रचना' में कवि तीर्थंकर प्रभु की स्तुति करता है । ८५ पदों की इस भक्ति - रचना में तीर्थंकर के स्वरूप, उनके स्तवन, समवशरण के विषय में बहुछंदों द्वारा अपनी श्रद्धा की काव्यात्मक अभिव्यक्ति की गई । यह एक उत्तम ललित ग्रंथ है, जिसके शब्दार्थ सौंदर्य बड़ी कलात्मक निपुणता के साथ उभारने का कवि ने प्रयास किया है। इसमें ३० दोहों, २८ मत्तगयंदों (सवैये), २० सिंहावलोकन छंदों, ४ कवित्तों, २ दुर्मिल छंदों और १ हरिगीतिका की रमणीयता देखते ही बनती है । 'रमणीयार्थ प्रिपादकः शब्द काव्यम्' - पंडितराज जगन्नाथ का कथन इसमें पूर्णतः चरितार्थ होता दिखाई पड़ता है । 'मम मंतव्य' नाम से लिखी गई अपनी गवेषणात्मक भूमिका में विद्वान संपादक मुनिश्री ने कई महत्त्वपूर्ण पहलुओं को उजागर किया है। कवि के जन्म व रचना -काल तथा रचना के शुद्ध पाठ-रूप पर उन्होंने समुचित साक्ष्यों द्वारा विचार किया है। रचनाकाल अंतः साक्ष्य के आधार पर संवत् १८६५ विक्रमी (अर्थ सन् १८०८ ई.) सुनिश्चित किया है। रचनाकार के बारे में शोध करके वे लिखते हैं- “देवाधिदेव रचना के रचयिता श्री हरजसराय जी हैं । वे ओसवाल जाति गदैया - वंश (गोत्र) के थे। ......इनका जन्मस्थान आज का पाक सीमावर्ती शहर कसूर ( कुशपूर) जिला लाहौर था, जो प्रदेश आजकल पाकिस्तान में आ गया है । इनके जैन होने का प्रमाण उनके वंशज हैं, जो आज भी विद्यमान हैं, तथा कपूरथला (पंजाब) में ग्रंथकार के प्रपौत्र जामाता लाला रामरतनजी जैन विद्यमान हैं । ग्रंथ के अंतः साक्ष्य के आधार पर ये विक्रम संवत् १८७०
२८
Jain Education International
तक जीवित रहे थे। उस वर्ष उन्होंने देव- रचना नामक ग्रंथ का सर्जन किया था । यह उनकी उपलब्ध अंतिम रचना है।” (देवाधिदेव रचना, मम मंतव्य, पृ. ७/ VII, १६-१०-६४)
विद्वान् मुनिश्री ने मूल के साथ उत्थानिका, अर्थ, विवेचन, टिप्पणी, संगति, छंद परिचय आदि देकर अपने अनुवाद और टीकाको पूर्णता प्रदान की है। एक रमणीय भक्ति-रचना का बृहत्तर पाठक समुदाय से परिचय कराने के लिए मुनिश्री जी का सारस्वत प्रयास सचमुच श्लाघ्य है । देवाधिदेव - रचना के छंदों की रमणीयता, और शब्दों का नाद - सौंदर्य निम्न पद में दृष्टव्य है:
गंध वर वर्ण वर्ण वर्णों के, वर्ण योग पट कंत छवी । लेपन शुभ गंध गंध मुख सुंदर, सुंदर वपु झष केतु दवी । घुम घुम घुमकंत कंत पग, घुंघरू नेवर छण छणकार करै । गुंजत अभिमाल मालती मोहत मोहत रस श्रृंगार धरै ।। (देवाधिदेव रचना, पद ५७) तीर्थंकर देव की अति रमणीय छवि का पान करने को कौन ऐसा होगा, जिसके नैन नहीं तरसेंगे ? “रूप रिझावनहारू वह, ए नैनै रिझवार ।” वस्तुतः मुनिश्री का यह उत्कृष्ट सटीक संपादन है, जो भक्ति में डूबे सहृदयों को मुग्ध कर देता है।
-
स्थानकवासी जैन-समाज में समादृत 'वृहदालोयणा' सुष्ठु संपादन मुनिश्री जी ने किया है। लाला रणजीतसिंह जी उत्तम स्वाध्यायशील सुकवि श्रावक थे, जिन्होंने पद्य - गध में मौलिक और संकलित दोहों-सोरठों का समाहार करके आलोचना की उदात्त भूमिका निर्मित की है । सवैया, गाथा और हरिगीतिका छंदों को भी भावानुसार स्थान दिया गया है। पंडित-रत्न श्री सुमन मुनिजी ने बृहदालोयणा के साथ प्रचलित ज्ञान-गुटका ( पद - संकलन ) का भी व्याख्यापूर्वक संपादन प्रस्तुत किया है । संग्रह में कबीर, तुलसी, रज्जब आदि संत कवियों के अतिप्रसिद्ध पद भी समाविष्ट हैं। जीवन की अनित्यता और क्षणभंगुरता के
अध्यात्म-मनीषी श्री सुमनमुनि जी का सर्जनात्मक साहित्य
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org