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________________ सुमन साहित्य : एक अवलोकन अध्यात्म-मनीषी श्री सुमनमुनि जी का सर्जनात्मक साहित्य डॉ. इन्दरराज बैद अध्यात्म भारतीय संस्कृति का प्राण- तत्व है । विद्याओं में इससे बढ़कर कोई विद्या नहीं । तत्व से साक्षात्कार करानेवाले आध्यात्मिक बोध की उपलब्धि जीवन की श्रेष्ठ उपलब्धि है, जिसे प्राप्त करने के लिए साधक को अपने जीवन का हर पल समर्पित करना होता है । अहर्निश स्वाध्याय-निरत रहकर ज्ञान की उत्कृष्ट उपासना से आत्मा को उज्ज्वल करना ही अध्यात्म के पथ पर चलना है । आभ्यंतर तप के इस श्रेयस्कर मार्ग पर चरणन्यास करने की योग्यता सबमें नहीं होती, श्रद्धावान् संयमी साधक ही स्वाध्याय -तप की पात्रता रखता है । भगवद्गीता में उद्घोष है-“श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । " ( ४ / ३६) श्रमण-संस्कृति ने भी 'मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः' कहकर साधक की अर्हता को सुनिश्चित कर दिया है। ऐसे साधक-रत्नों में अग्रणी हैं मुनिवर श्री सुमनकुमार जी महाराज जो विगत पचास वर्षों से आध्यत्मिक पथ पर चलते हुए रत्नत्रयाराधना पूर्वक श्रमणत्व की श्रेष्ठता का समुद्घोष करते रहे हैं। आज उनकी दीक्षा की स्वर्ण जयंती की शुभ वेला में जब हम उनके साधनामय जीवन पर दृष्टिपात करते हैं, तो हम श्रद्धा और गौरव की पुनीत भावनाओं से अभिभूत हो उठते हैं। अपने संयम का दृढ़तापूर्वक पालन करते हुए, श्रद्धा-भक्ति साथ ज्ञानोपासना का जो आदर्श उन्होंने उपस्थित किया है, वह परम स्तुत्य है । चिंतत, मनन और मंथन करके अध्यात्म का जो सारस्वत प्रसाद उन्होंने वितरित किया है, उसे देखकर सिद्ध होता है कि श्री सुमन मुनिजी सच्चे अर्थों में उपदेष्टा हैं, उपाध्याय हैं, वे उच्च कोटि के विद्वान् श्रमण हैं, जिन्होंने धार्मिक साहित्य के उत्तम ग्रंथों से जिन शासन की अभिनंदनीय सेवा की है । श्रमण संघ के सलाहकार मंत्री मुनि श्री सुमनकुमार जी महाराज की उल्लेखनीय कृतियाँ हैं:- श्रमणावश्यक अध्यात्म-मनीषी श्री सुमनमुनि जी का सर्जनात्मक साहित्य Jain Education International सूत्र, तत्त्व चिंतामणि (संपादन), बृहदालोयणा - ज्ञान गुटका (संपादन) अनोखा तपस्वी श्री गैंडेरायजी महाराज, शुक्लस्मृति, शुक्ल ज्योति, पंजाब श्रमण संघ गौरव आचार्य श्री अमरसिंहजी महाराज और शुक्ल - प्रवचन ( चार भाग ) इन ग्रंथों के अध्ययन से श्रद्धेय मुनिश्री के तीन रूप उभरकर सामने आते हैं, पहला तत्त्व-शिक्षक का रूप दूसरा चरितलेखक का रूप और तीसरा साहित्यानुशीलक का रूप । मुनिश्री का वैदुष्य यद्यपि तीनों रूपों में झलकता है, फिर भी उनके तत्त्व - शिक्षक की स्पष्ट छाप उनके साहित्य में सर्वत्र देखी जा सकती है। जैन दर्शन की सैद्धांतिक कृतियों में ही नहीं, उनके जीवनी - साहित्य और संपादित साहित्य में भी उनका तत्त्ववेता रूप स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । यह आवश्यक भी है, क्योंकि उनकी साहित्य-सर्जना हृदय- रंजन की नहीं, आत्म- रमण की प्रक्रिया है । जीवन चरितों में अथवा प्राचीन साहित्य के अनुशीलन में जहाँ कहीं भी उन्हें अवसर मिला है, जैन-दर्शन की बारीकियों को उजागर करने में तत्पर रहे हैं। उनके समग्र साहित्य का अध्ययन करनेवालों को भले ही पुनरुक्ति का आभास होता हो, पर किसी ग्रंथ को स्वतंत्र रूप से पढ़ने वाले पाठक की जिज्ञासा तो ऐसे ही लेखन से शांत हुआ करती है । 'प्रवचन दिवाकर' मुनिश्री सुमन कुमार जी महाराज का आगम- वेत्ता तत्त्व- शिक्षक का रूप प्रमुखतापूर्वक जिन कृतियों में उभरकर आया है, उनमें तत्त्व - चिंतामणि के तीन भाग, गणनीय और पठनीय हैं। जैन धर्म-दर्शन के आधारभूत सिद्धांतों का तात्विक विवेचन ही 'तत्त्व- चिंतामणि' का प्रतिपाद्य विषय है, जिसके संबंध में मुनिश्री का मंतव्य है: “आज के विज्ञान-युग में मनुष्य प्रत्येक वस्तुके विषय में अन्वेषणात्मक दृष्टिकोण और जिज्ञासा रखता है, अस्तु, उन जैन दर्शन के तत्त्वों को सर्वांगीण रूप में जानने और For Private & Personal Use Only २५ www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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