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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि देव-रचना, व देवाधिदेव रचना है । गेय होने के कारण ये तीनों ग्रंथ बहुत ही लोकप्रिय हुए। ये एक श्रेष्ठ कवि, संगीत के ज्ञाता, कुशल लिपिक व विद्वान् पुरुष थे । कहते हैं कि ये आचार्य श्री नागरमलजी (पंजाब) के श्रावक थे। सर्वज्ञ, वीतराग व अर्हत् को देवाधिदेव कहा जाता है । “देवाधिदेव रचना" एक छोटा सा ग्रंथ है जिसमें मात्र ८५ पद हैं। इसको इतनी प्रसिद्धि मिलने का कारण है कि यह लोक भाषा में लिखी हुई सरल रचना है । यह एक सुमधुर रचना है तथा इसकी भाषा प्रवहमान है । इसमें अनेक दोहे, सवैये व अन्य छंदों तथा अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक आदि अलंकारों का उपयोग करके कवि ने इसे बहुत सरस बना दिया है। इसकी वर्णन शैली व भाव भी रोचक है । उनमें रूक्षता नहीं है, सर्वत्र कोमल कांत पदावली का प्रयोग हुआ है । भाषा संस्कृत - प्राकृतनिष्ठ हिन्दी है पर उस पर राजस्थानी व पंजाबी का भी प्रभाव है । उनके काव्य में स्वाभाविकता, कोमलता व मधुरता का नमूना देखें - “धर्म कथा अति सुन्दर, श्रीजिनराय कही सब ही सुख पाया, के नर-नार लिए ऋष चारित, के अणुव्रत लई मग आया । के समदृष्टि तथा तिरजंच, सुश्रावक के समदिष्ट सुहाया, देव भये भगता अतिमोदत, सब ही भव्य नमी गुण गाया । । ४८ । । इस ग्रंथ को मूलतः तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है - मंगलाचरण, देवाधिदेव स्तुति व समवसरण । इसमें तीर्थंकरों के चरित्र की विशेषताओं, उनके चरित्र के गुण, समवसरण रचना, उनके उपदेश, उनकी वाणी का प्रभाव इत्यादि सभी विषयों का सांगोपांग विवेचन किया गया है । इसकी सामग्री कवि ने अंग- उपांग आगमों, आगम- बाह्य ग्रंथों तथा स्थानांग, समवायांग, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, औपपातिक, राजप्रश्नीय, प्रवचनसारोद्धार आदि ग्रंथों से ली है। १४ Jain Education International पूज्य श्री सुमनमुनि जी ने इस ग्रंथ का विस्तृत व परिपूर्ण विवेचन किया है। संबंधित ग्रंथों के उद्धरण व संदर्भ आदि देने से यह पुस्तक शोधार्थियों के लिए भी लाभप्रद बन गई है । पुस्तक के अंत में परिशिष्ट बहुत लाभदायक है। इसमें आपने पारिभाषिक शब्द - कोष दिया है जिसमें कठिन शब्दों का अर्थ स्पष्ट किया है। इसके साथ ही शास्त्रों में वर्णित तीर्थंकरों के चौतीस अतिशय तथा उनकी वाणी की पैंतीस विशेषताओं का वर्णन किया है। इसके अतिरिक्त मूलग्रंथ में उद्धृत तेरह महापुरुषों के जीवन के रोचक वृतांत भी प्रस्तुत किये हैं, जो प्रेरणादायक हैं। आकर्षक मुखपृष्ठ ग्रंथ का मुखपृष्ठ भी बहुत सुन्दर है जो ग्रंथ रचना के मूल नाम को प्रदर्शित करता है। चार रंगों के इस आकर्षक मुखपृष्ठ में एक प्रकाश स्तम्भ को चित्रित किया गया है, जिसमें से निकलकर तेज प्रकाश चारों दिशाओं में फैल रहा है। प्रकाश स्तम्भ के नीचे समुद्र है, जिसमें से लहरें ऊपर उठ रही हैं, समुद्र में अनेक प्रकार के जीव-जन्तु, स्त्री-पुरुष, नावें, जहाजें आदि हैं, उनमें से कई इस प्रकाश स्तम्भ की किरणों से आकर्षित होकर समुद्र के किनारे पहुँच जाते हैं। तीर्थंकरों का जीवन उस महा तेजस्वी प्रकाश स्तम्भ की तरह होता है जिसमें से निरंतर दिव्य प्रकाश की लहरें निकलती रहती हैं तथा चारों दिशाओं में फैलती रहती है । संसार - समुद्र के भीषण आघातों, प्रत्याघातों से टक्कर खाते प्राणी जब तीर्थंकर भगवान् का उपदेश सुनते हैं तो उनका जीवन दिव्य प्रकाश को प्राप्त करता है और वे उन उपदेशों को आचरण में लाकर अपने जीवन को ऊँचा उठाते हैं तथा शुद्ध और मुक्त हो जाते हैं । “देवाधिदेव - रचना ” प्रतिदिन पाठ करने योग्य ग्रंथ है । तीर्थंकरों के प्रति हृदय में श्रद्धा जागृत करने वाली यह एक श्रेष्ठ एवं अनुपम कृति है । *** - For Private & Personal Use Only देवाधिदेव रचना www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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