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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व
कितनी विडंबनाएँ एवं घनीभूत पीड़ा विद्यमान थी यह तो कोई सहृदयी ही जान सकता था। सहृदयी व्यक्ति भी जनसंकुल में ही थे। वे थे - बाबू देशराज जी वकील, वैद्य वासुदेव जी एवं उनके कुछ मित्र । उन्होंने गिरधारी को आर्य समाज मंदिर में भेज दिया। कपूरथला के बस अड्डे के सन्निकट ही था, वह मंदिर ।
गिरधारी ने कहा - मैं ऐसे भी आपकी सेवा में संलग्न हूँ ही, फिर शिष्य बनने का क्या तात्पर्य?
"शिष्यत्व ग्रहण किए बिना आत्मा का कल्याण नहीं होता, गुरु ही मोक्ष-कृपा का मूल है।” सन्यासी जी ने कहा। ____ अन्ततः विवशता के साथ गिरधारी ने कहा-“आप मुझे अपना ओघड़ शिष्य बना दीजिये।"
__किन्तु सन्यासी जी कर्ण-मुद्राधारी शिष्य बनाने के लिए उत्सुक थे अतः गिरधारी की बात को स्वीकार न कर अपना आग्रह ही गिरधारी को मनाने में जुटे रहे।
निष्कर्षतः किशोर गिरधारी का मन वहाँ से ऊब गया और संन्यासी के मठ/डेरे का परित्याग कर वह शालीमार बाग में आ गया। घनीभूत पीड़ा जाने सहृदयी ... शालीमार बाग अति विस्तृत भू भाग पर फैला हुआ था। प्रकृति की छटा अत्यन्त रमणीय थी। पक्षियों के कलरव से अधिक वह उद्यान जनरव से व्याप्त था। विशालकाय वृक्षों की पंक्तियाँ आकाश को छूने का (निरर्थक) उद्यम कर रही थी, पुष्पों की सौरभ भ्रमरों, तितलियों को आकर्षित कर रही थी। इसी प्राकृतिक छटा के मध्य गिरधारी बैठा था। प्रकृति का उसके साथ कोई हठाग्रह, दुराग्रह नहीं था, कुल मिला कर वह उस समय स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त था।
बाल सूर्य की आभा उदित होने से पूर्व ही लोग भ्रमणार्थ, हवाखोरी के लिए वहाँ चले आते थे। कतिपय लोग नियमित रूप से गिरधारी को वहाँ बैठा देखते थे। एक दिन पूछ ही बैठे गिरधारी से उसका परिचय। गिरधारी ने आद्योपान्त अपनी जीवन की रेखाएँ उनके समक्ष प्रस्तुत कर दी। इन जीवन रेखाओं में जीवन की
सत्यप्रकाश या निंदक प्रकाश :
गिरधारी एक सप्ताहांत तक रहा, वहाँ! उसे सत्यार्थ प्रकाश (आर्यसमाजी ग्रन्थ - स्वामी दयानंद सरस्वती रचित) पठनार्थ दिया गया। गिरधारी ने पढ़ा उसमें सभी धर्मों के प्रति टिप्पणियाँ थी, आलोचना थी। जैन धर्म भी अछूता नहीं रहा आलोचना से। गिरधारी ने सोचा - “नाम सत्यार्थ प्रकाश, विषय आलोचना का। कहाँ है सत्य का प्रकाश इसमें? अंधेरे में दिखाई देने वाली सत्य की किरण का तो यहाँ अभाव है। इसका नाम तो आलोचना या निंदक प्रकाश रख देना चाहिए था।" उसने किताब पुनः लौटा दी। मन भर गया, जैन धर्म की निन्दा विषयक पुस्तक पढ़कर। किसी का हृदय या धर्म परिवर्तन दया-प्रेमकरुणा से किया जाता है न कि आलोचना या निन्दा करके।"
गिरधारी वहाँ से भी चल पड़ा। वह वैद्य वासुदेवजी के सम्मुख पहँचा और आर्य समाज मंदिर में रहने में अपनी असमर्थता जताई। ___ वैद्य वासुदेव जी जैन स्थानक के भूमि तल पर एक कक्ष में राजकीय आयुर्वेदिक औषद्यालय का संचालन कर रहे थे। एक कम्पाउण्डर भी नियुक्त था कार्य सहयोगी के रूप में गिरधारी को भी वहीं नियुक्त कर दिया।
दुभाग्यवश....!
औषद्यालय में रुग्णों की भीड़ लगी रहती थी।
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