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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
पंजाब श्रमणी परम्परा
जिनशासन में पुरुष और स्त्री को एक समान अधिकार प्रदान किए गए हैं। "पुरुष उत्तम है और नारी अधम है" यह भाव पुरुष के अहं का परिपोषक है। अतीत के हजारों वर्षों के जैनेतर इतिहास का जब हम पारायण करते हैं तो पाते हैं कि नारी को अनावश्यक रूप से पुरुष की तुलना में दीन-हीन अंकित किया गया है और उसे पांव की जूती तक कहकर अपमानित किया गया है। आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व जब भगवान् महावीर का जन्म हुआ तव भी नारी दुर्दशा और दुरावस्था में जीवन यापन कर रही थी। उस समय भगवान् महावीर ने घोषणा की कि नर और नारी एक समान हैं। दोनों ही समान रूप से मोक्ष के अधिकारी हैं। उस समय जब नारी को संहिताएं तथा धर्मशास्त्र सुनने तक के लिए अपात्र घोषित कर दिया था तब महावीर ने न केवल नारी को धर्म श्रवण का अधिकारी माना अपितु उसे परुष के समान ही अपने धर्मसंघ में ससम्मान सम्मिलित भी किया।
प्रागैतिहासिक काल पर दृष्टिपात करें तो आदिभगवान् ऋषभदेव की दो पुत्रियां - ब्राह्मी और सुन्दरी हमारे दृष्टि पथ पर आती हैं। इन दोनों नारियों ने न केवल आध्यात्मिक
क्षेत्र में अपितु लौकिक क्षेत्र में भी जगत् का मार्गदर्शन किया था। __ भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक, और भगवान् महावीर से लेकर वर्तमान काल तक जिनशासन में नारी नर के तुल्य ही समान अधिकार की पात्र रही है। उसने इस लम्बे कालखण्ड में न केवल पुरुष की समानता की है अपितु अनेक अवसरों पर उसका मार्गदर्शन भी किया है। उसे पतित होने से भी बचाया है। वह कभी ब्राह्मी और सुन्दरी का रूप धर कर बाहुबली के लिए
कैवल्य का द्वार वनी है तो कभी राजुल के रूप में उसने रथनेमि को पतित होने से बचाया है। मल्ली के रूप में उसने अपने छह मित्रों तथा जगत् के लिए मोक्ष का पथ प्रशस्त किया है तो मृगावती के रूप में उसने बड़ी कुशलता से चण्डप्रद्योत जैसे खल से अपने शील की रक्षा भी की है। द्रौपदी, सीता, प्रभावती, पद्मावती, चन्दना, याकिनी महत्तरा कितने उज्ज्वलतम रूप हैं नारी के !
पिछले पृष्ठों पर हमने पंजाव श्रमण परम्परा का
मिष्ठले पाठों पा हमने पंजाव श्रमण इतिहास प्रस्तुत किया है। हम समझते हैं कि साध्वी परम्परा के इतिहास के बिना यह अध्याय अपूर्ण रह जाएगा। जैसे आर्य सुधर्मा स्वामी से लेकर वर्तमान तक मुनि परम्परा अक्षुण्ण रूप से प्रवाहित रही है वैसे ही आर्या चन्दनवाला से लेकर वर्तमान तक श्रमणी परम्परा भी अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है।
"पंजाब श्रमणी परम्परा" हमारा प्रतिपाद्य है। श्रमण परम्परा के इतिहास की तरह ही श्रमणी परम्परा का इतिहास भी पूर्ण प्रामाणिक रूप से उपलब्ध नहीं है। तथापि १७५० वि.स. के पूर्व से लेकर आज तक की परम्परा का यथाशक्य जो रूप है वही यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
(१) साध्वी खेता जी
पंजाब के श्रमणी परम्परा के इतिहास में अब तक साध्वी खेताजी का नाम सबसे प्राचीन है। आपका इतिवृत्त अज्ञात है। अनुलेखों के आधार पर इतना स्पष्ट है कि आप वि.सं. १७५० में विद्यमान थीं। इसी संवत् में आपके पास दीक्षा हुई थी ऐसा अनुलेख प्राप्त होता है। पंजाब स्थानकवासी श्रमण परम्परा के आद्य पुरुष श्री
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पंजाब श्रमणी परंपरा
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