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श्री अतिशय क्षेत्र कुंडलपुर में स्थित श्री जैन उदासीन आश्रम के संस्थापक ६९ रात्रि के समय सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को केवल धर्म विषय की शिक्षा ही दी जाती थी। स्कूलों में पांच छ: घन्टों में भाषा, साहित्य, मणित, भूगोल, पदार्थ विज्ञान आदि अनेक विषयों को पढ़ने में तल्लीन विद्यार्थी इस धर्म शिक्षा को ग्रहण करने में बहुत कम मन लगाते थे। मेरा सुझाव था कि प्रयोजनीय व्यावहारिक विषयक ज्ञान कराने वाले विविध विषयों के साथ एक ही शाला में साथ में जैन धर्म की भी शिक्षा दी जावे, जिससे वे इसे भी मनोयोग से ग्रहण करके लाभान्वित होते रहें। यद्यपि मैं स्कूल के पाठ्य विषयों की शिक्षा देने में भली-भांति अभ्यस्त था, परंतु जैन धर्म विषयक ज्ञान से प्रायः अछूता ही था, किन्तु उसे पाने के लिये अत्यंत लालायित था और प्रयत्नशील भी था ।
ज्ञान के बिना क्रियायें फलदायक नहीं है। बाबा जी ने ऐसा अनुभव करके आत्मा के परम कल्याणकारी चरित्र को सार्थक बनाने के लिये आमम ज्ञान का अभ्यास करना आवश्यक माना। अतएव इसे प्राप्त करने के लिये आपने जैन शास्त्रों का स्वाध्याय करना प्रारंभ किया और आगम ज्ञान को प्राप्त करने की अभिलाषा रखने वाले अपने भाई स. सि. रतन चंद जी तथा पटवारी गिरधारी लाल जी और मुझको अपना साथी बना लिया। अब हम चारों ज्ञान-पिपासुओं के सहयोग से इस कक्षा की पढ़ाई प्रारम्भ हुई। प्रतिदिन श्री जिन मंदिर में प्रातः काल डेढ़-दो घंटा बैठकर शास्त्रों का अध्ययन होने लगा। हम चारों ही परस्पर में एक-दूसरे के अध्यापक और विद्यार्थी बनकर शास्त्र पढ़ते, चर्चा करते और अपनी बुद्धि के अनुसार निर्णय करने लगे। जिस बात का संतोषजनक निर्णय न होता अथवा जिस छंद या पंक्ति या शब्द का अर्थ निकालने में बुद्धि काम न करती, उसके सम्बन्ध में निर्णय कराने- अर्थ समझने के वास्ते किताब पर उसे लिखने लगे। देव-योग से, जब कभी पूज्य पंडित शिरोमणि गोपाल दास जी वरैया से या उस समय के पंडित गणेश प्रसाद जी तथा अन्य जैन पंडितों से भेंट हो जाती. तब लिखी हुई शंकाओं का, प्रश्नों का निर्णय करा लेते, अर्थ को समझ लेने थे। इस प्रकार सतत् प्रयत्नशील रहने से
अति अल्पकाल में ही छह ढाला, द्रव्य संग्रह, रत्नकरंडश्रावकाचार, मोक्षशास्त्र, अर्थप्रकाशिका, नाटक समयसार, पंचास्तिकाय आदि महान् ग्रन्थों का अध्ययन करके तत्वज्ञान के अर्थ को संचय करने के योग्य पूँजी रूप में कुछ ज्ञान प्राप्त कर लिया।
हम सबका यह शुभ प्रयत्न चालू ही था कि इसी अक्सर पर सतना से पूज्य क्षुल्लक बाबा पन्ना लाल जी का कटनी में शुभागमन हुआ। आफ्के आगमन से इस स्वाध्याय मण्डली के प्रमुख श्री ब्र. मोकल प्रसाद जी को बड़ा हर्ष हुआ। आपकी उदासीन भावना को प्रेरणा प्राप्त हुई। साथ ही, यह आशा हुई कि कटनी के विद्यमान फूट महारानी को बिदा मिलेगी जिसके लिये आप पहिले से प्रयत्न कर रहे थे। बाबा जी के उपदेश से बरसों से ( पार्टियों में ) जो वैमनस्य फैला था, वह दूर हो गया। बरसों से जो खान-पानादि व्यवहार बंद था, वह चालू हो गया। परन्तु इसके स्थान में एक नयी बाधा उपस्थित हो गई। बाबा जी छपे हुए शास्त्रों के पठनपाठन करने के विरोधी थे। इस कारण आपने श्री मंदिर जी में बैठकर छपे शास्त्रों का पढ़ना बंद करा दिया। साथ ही, शास्त्रभंडार में विद्यमान छपे शास्त्रों को वहाँ से उठवा दिया। बाबाजी के इस आदेश से सम्यग्ज्ञान के प्रसार में जो रोड़ा अटका, उससे स्वाध्याय प्रेमी बंधुओं के चित्त में बड़ा आघात पहँचा। परंतु उपाय क्या था, गुरु-पद पर आरूढ़ क्षुल्लक महाराज के आदेश को उल्लंघन करने की किसमें सामर्थ्य थी क्योंकि उसके उल्लंघन करने वाले के लिये भविष्य में नरक की भारी यातना को भोगने के सिबाय वर्तमान में पंचों द्वारा दिये जाने वाले दंड को सहने का भय था। यद्यपि कुछ दिनों तक हमारी अध्ययन कक्षा का कार्य सरस्वती भंडार में संगृहीत लिखित शास्त्रों के पठन-पाठन रूप में चलता रहा, परंतु लिखित शास्त्रों में लेखकों की अनभिज्ञता से तथा प्रमाद के क्या से अनेक अशुद्धियाँ होने से अनेक स्थलों पर शब्दों के ही समान वाक्य के वाक्य छूटे हुए होने के कारण
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