________________
जैन शिक्षा-संस्था के संस्थापक और संचालक नीरज जैन सतना, म०प्र०
बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में एक निस्पृह शिक्षाव्रती अध्यापक ने समाज के बालकों को जैन धर्म के संस्कारों के साथ शिक्षा देने के अभिप्राय से, सरकारी नौकरी छोड़कर, एक दिन एक छोटी-सी कोठरी में अपने ज्ञान-यज्ञ का शुभारम्भ किया। उनका रोपा हुआ वह पौधा धीरे-धीरे बढ़कर थोड़े ही समय में एक विशाल और छायादार वृक्ष के रूप में वृद्धिंगत हुआ। संयोग की बात यह रही कि उसी महान् अध्यापक के एक सुयोग्य शिष्य ने उस पौधे को अपने जीवन भर सींचा और संरक्षण दिया।
गुरु ने अपनी पचहत्तर साल की आयु में उस विद्यालय का लेखा-जोखा लिखकर अपने शिष्य को सौंप दिया। शिष्य ने अपनी प्रसंशा के परहेज के कारण पच्चीस वर्ष तक उस दस्तावेज को अपने बस्ते में सबसे नीचे बांध कर रखा। आज, इतिहास की शृंखलाएँ जोड़ने के प्रयास में वह महत्वपूर्ण विरासत अकस्मात् हाथ लग गई । अब तक शिष्य महाराज भी 'बाबा जी' बनकर अपने पिता द्वारा स्थापित उदासीन आश्रम में पहुंच चुके हैं ।
उस परम निस्पृही, सेवाभावी अध्यापक का नाम था पं० बाबू लाल। उनके सुयोग्य शिष्य को हम पं० जगन्मोहन लाल शास्त्री के नाम से प्रणाम करते हैं। वे कटनी की जैन शिक्षा-संस्था के प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थी से लेकर प्रधान अध्यापक और प्रमुख-संचालक तक विभिन्न रूपों में अपने पूरे समय इस संस्था से जुड़े रहे। आज भी उन्हें और संस्था को अलग-अलग नहीं माना जाता । वस्तुतः जैन शिक्षा-संस्था कटनी का इतिवृत्त प्रकारान्तर से पण्डित जगन्मोहन लाल जी की कहानी है, और पण्डित जी का जीवन परिचय प्रकारान्तर से संस्था का ही परिचय है।
सवाई सिंघई रतन चन्द्र जी ने सन् १९१८ में पच्चीस हजार रुपये का दान निकाला । अपने दान-पत्र में उन्होंने यह निर्देश किया कि इस राशि से ब्याज की जो आय हो, उसका आधा भाग जैन पाठशाला के छात्रावास की व्यवस्था में व्यय किया जाय और शेष आधी राशि जगन्मोहन लाल की आजीविका के लिए उपयोग में आती रहे। यह दान-पत्र पं० बाबू लाल जी की प्रेरणा से लिखा गया और उनके तथा दातार के बीच में ही रहा। जगन्मोहन लाल जी को भी यह व्यवस्था बहत दिनों तक ज्ञात नहीं थी।
यह दान-पत्र कच्चे कागज पर किसी मुन्शी के हाथ से लिखाया गया था। इस पर दातार के हस्ताक्षर भी नहीं थे। कालान्तर में इसे वैधानिक रूप देने के लिए जब सन् १९३५ और १९३९ में प्रयास किये गये, तब इस विषय में समाज में ऐसा भ्रम फैला दिया गया जिससे कटनी में इस बात को लेकर कई सप्ताहों तक एक आन्दोलन सा छिड़ा रहा। खैर, दान-पत्र का प्रकरण तो अपने ढंग से कुछ दिनों में समाप्त हो गया परन्तु इस घटना ने सिंघई जी का मन सामाजिक कार्यों के प्रति खट्टा कर दिया। वास्तव में दान-पत्र की रजिस्ट्री कराते समय अपनी सम्पत्ति का और भी भाग वे उसमें सम्मिलित करना चाहते थे परन्तु फिर अपने अंत समय तक वे ऐसा नहीं कर पाये। एक मोटी रूप-रेखा बनी, पर इसी बीच सन् १९३९ में ही उनका देहावसान हो गया। उनके मरणोपरान्त उनके उत्तराधिकारियों की ओर से उनकी भावना के अनुरूप, पूर्वजों के दान के रूप में, ५१,००० हजार की राशि दान में निकाली और उसका विधिवत् ट्रस्ट बना दिया गया।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org