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४२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
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उतरते दिखते हैं। वैसे पण्डितों में मतभेद कोई नई बात नहीं। इसका प्रभाव समाज को विकृत न करे, यह महत्वपूर्ण है । समाचार पत्रों की सूचनाओं से पता चलता है कि इस समय प्रमुख दो मतों के पोषक पण्डितों का अनुपात ९५ : २३५ है । इससे समाज में विकृति के लक्षण प्रकट होते दिखते हैं। विद्वानों का उत्तर है कि वे विकृति की शिक्षा नहीं देते, शास्त्रीय मार्ग का उपदेश देते हैं । पर यदि समयसार के पारायण से टीकमगढ़, ललितपुर, करेली, उज्जैन, हस्तिनापुर और अन्यत्र सिर-फुटौवल होती है, तो इसका परोक्ष मल तो खोजना ही चाहिये। ऐसे मार्ग को सन्मार्ग में परिणत करने का उपाय क्या है ? यह वर्तमान पण्डित परम्परा के सामने जटिल प्रश्न है । नयी पीढ़ी को आर्थिक स्वावलम्बन के साथ ऐसे प्रश्नों का समाधान भी खोजना होगा। यदि नई एवं भावी पीढ़ी 'आदहिदं कादब्ब' के उपदेश से प्रसूत आत्मकेन्द्रण की वृत्ति से दिगम्बर पन्थ को मुक्त कर कुछ उदारता दे सके, तो समाज पर उसका अनन्त उपकार होगा।
निर्देश १. आशाधर, पण्डित; अनगार धर्मामृत, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९७७ पेज १८ । २. नाथूराम प्रेमी (सम्पा०, स्व०); अधंकथानक, युवा फैडरेशन, जयपुर, १९८७, पेज ८७ । ३. नेमिचन्द्र शास्त्री; भगवान् महावीर और उनको आचार्य परम्परा, १-४,
दि० जैन विद्वत् परिषद्, सागर, १९७४ । ४. देखिए निर्देश २ पेज ४९ । ५. सतीश कुमार जैन; प्रोग्रेसिव जैन्स आव इंडिया, श्रमण साहित्य संस्थान, दिल्ली, १९७५ । ६. सोरया, विमलकुमार; विद्वत् अभिनन्दन ग्रन्थ, शीस्त्रि, बडीत, १९७६ । ७.पं. दौलतराम; जैन क्रिया कोष, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, १९२७ । ८. शास्त्री, पं० पद्मचन्द्र; अनेकान्त, दिल्ली, ४०, १, १९८७, पेज ३० । ९. शास्त्री, पं० जगन्मोहनलाल; वर्णी स्मृति-प्रन्थ, दि० जैन विद्वत् परिषद्, सागर, १९७४, पेज ३७ ।
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