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जैन पंडित परंपरा : एक परिदृश्य ३९ इस सदी के चौथे-पांचवें दशक में मूर्ति छात्रवृत्ति के समान योजनाओं से एक नयी पण्डित पीढ़ी का निर्माण हुआ। ये पण्डित न केवल जैन विद्याओं के ही ज्ञाता थे, अपितु इन्होंने पाश्चात्य शिक्षा का भी अवसर पाया। इससे अनेक जैनविद्याविज्ञ के साथ व्यवसाय-विद्याओं में भी निष्णात बने । आज अनेक विश्व विद्यालयों, जैन महाविद्यालयों या संस्कृतप्राकृत संस्थानों में यही पीढ़ी सामने है । यही पीढ़ी तकनोको क्षेत्र में बिहार, उत्तर-प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र आदि में अपना यश कमा रही है। यह पीढ़ो अपनी गुरु-प्रगुरु परम्परा की तुलना में समाजेतर स्रोतों से अपनी आजीविका ग्रहण किये हुए हैं और अपने पूर्ववर्ती वरिष्ठों से सम्पन्न बनती जा रही है । इस पीढ़ी को जहाँ जैन-जनेतर विद्वत्-समाज में अच्छा स्थान प्राप्त हो रहा है, वहीं जैन समाज में, सामान्यतः, उसको वह मान्यता नहीं है जो शास्त्रीय पण्डितों की आज भी है । इससे इस पीढ़ी में कुछ विशिष्ट मानसिकता के दर्शन होते हैं जो समाज के प्रति उपेक्षावृत्ति के द्योतक है । इस वर्ग में पुराने समय की स्वान्तःसुखाय सामाजिक रुचि की वृत्ति के भो अर्थ-सुखाय के रूप में परिणत होने से अध्यात्मसाधक दिगम्बर समाज की स्थिति एक निर्वात अवस्था में पहुंचती जा रही है। आचार्यों ने कहा है, "आदहिदं कादब्वं"। आखिर पण्डित या विद्वान् को भी तो आत्मा है। इन्होंने अपने गुरुओं के उदाहरण देखकर समाज का मर्म समझा है और तदनुरूप वृत्ति अपनाना अपना कर्तव्य माना है।
इस द्वितीय वर्ग के वर्तमान और भविष्य के प्रति शंकित होकर जैन संस्थाओं में पुनः एकपक्षीय शिक्षानीति बनी । इसके युगानुरूप न हाने से दो परिणाम हुए :
(i) संस्थाओं में उच्चतर अध्ययन हेतु विद्यार्थी आना कम हो गया ।
(ii) अधिकांश विद्यार्थी पाश्चात्य पद्धति पर आधारित उपाधियों या उनके समकक्ष शिक्षण के प्रति आकृष्ट हए । उन्हें इसी दिशा में आजीविका के अच्छे स्रोत प्रतीत हुए ।
फलतः आज स्थिति यह है कि प्राच्य पद्धति की जैन शिक्षा प्रायः समाप्त दिख रही है और शुद्ध नयी कोटि के आधुनिक विद्वान् जन्म ले रहे हैं। इन्हें पण्डित मानने को समाज तैयार नहीं दिखता। ये जमेतर क्षेत्रों में ही अपनी आजीविका के प्रति आशावान् हैं। यह वर्ग वर्तमान पीढ़ी के तीसरे रूप का प्रतिनिधि है। इसमें भी सामाजिकता तथा धर्म के प्रति माध्यस्थ भाव है । इस वर्ग को संख्या क्रमशः वर्षमान है।
आधुनिक पण्डित वर्ग की ये तीनों ही कोटियाँ पूर्ववर्ती कोटि से भिन्न स्तर पर चल रही है। प्रथम वर्ग के
माजिक एवं साहित्यिक संस्थाओं और विशिष्ट श्रीमन्तों से सहचरित होकर जीवन-क्षेत्र में रहे। इनकी ज्ञानगरिमा और बाह्य चारित्र की धाक समाज पर रही। इन्होंने अनेक संस्थाओं की स्थापना में मील के पत्थर बनकर भाषान्तरित धार्मिक साहित्य का प्रकाशन कराया। इस पीढो ने जैन विद्याओं से सम्बन्धित धार्मिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परम्परा पर विद्वत्तापूर्ण गवेषणायें की। इससे जैनेतरों में भी जैन विद्याओं के प्रति अनुसन्धानात्मक दृष्टि कोण से अनुराग उत्पन्न हुआ। इस वर्ग के पण्डितों ने नई पीढो को जन्म तो अवश्य दिया. पर उसे प्रेरणा या मार्गदर्शन नहीं दिया। इससे इनके शिष्य वर्ग ने जो, जहाँ, जैसी दिशा मिली, ग्रहण की।
इस वर्ग की उत्परिवर्तित पोढ़ी ने प्रत्यक्षतः तो नहीं, परोक्षतः अपने शिष्य-प्रशिष्यों को नई दिशा ग्रहण करने को प्रेरणा दी। फलतः मूलभत आधार के बावजूद भी वे समाज पर अनाश्रित आजीविका क्षेत्रों की ओर मुड़े । उन्होंने यह भी प्रयत्न किया कि या तो वे स्वयं अपनी सामाजिक साहित्यिक संस्था बनायें या ऐसी संस्थाओं में अपना स्थान पायें जहाँ उनके भौतिक लक्ष्य सफल हो सकें।
प्रथम वर्ग की पीढ़ी को ९१% सन्तति ने पण्डित व्यवसाय नहीं अपनाया। यह तथ्य भी शिष्य-प्रशिष्यों को अचरजकारी होते हुए भी उनके मनोमन्थन का कारण बना। सम्भवतः इसी तथ्य ने उन्हें सामाजिक आजीविका के प्रति
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