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कविवर बनारसीदास की चतुःशती के अवसर पर विशेष लेख अर्द्धकथानक' : पुनर्विलोकन डा० कैलाश तिवारी प्राचार्य, शास० महाविद्यालय, मझौलो
हिन्दी साहित्य में 'अद्धं कथानक' को हिन्दी का प्रथम आत्मचरित स्वीकार करते हुए इसके रचनाकार को प्रथम आत्मकथा साहित्य का जन्मदाता भी कहा गया है । साहित्य-इतिहास में इनका उल्लेख मध्यकाल के अन्य कवियों के साथ किया गया है। बनारसीदास ने इतिहास के तीन शासकों-अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के युग को देखा था। यह भी प्रमाणित है कि उन्हें शाहजहाँ से संरक्षण प्राप्त था। अतः किसी न किसी रूप में इन शासकों की राज्य व्यवस्था और समाज-दशा की झलक 'अर्द्धकथानक' में मिल जायेगी।
'अर्द्धकथानक' के अतिरिक्त लगभग २३ अन्य काव्य-रचनाएं भी उनकी हैं । इन काव्य रचनाओं का विषय या तो धर्म है या उपदेश । वस्तुतः इन रचनाओं के जरिये उन्होंने जैन-धर्म को सर्वसाधारण के लिए ग्राह्य बनाने का प्रयास किया है और इसके लिए उन्होंने बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है। इन जैसे रचनाकारों के प्रयास के फलस्वरूप ही संस्कृत और प्राकृत के साथ ही साथ जनभाषा में भी जैनधर्म के सिद्धान्तों और केन्द्रीय विचारों को भी प्रस्तुत किया जाने लगा था। इस तरह से उनकी दो उपलब्धियाँ हैं-एक तो जनभाषा के माध्यम से जैनधर्म के सिद्धांतों को लोक-सुलभ बनाना और दूसरा कवि के लिए आत्मकथा लेखन का मार्ग खोलना। यह सत्य है कि बनारसीदास के बाद भी मध्यकाल में किसी कवि या रचनाकार ने आत्म-कथा (लेखन) की ओर ध्यान नहीं दिया था।
हिन्दी रचनाकारों का यह दुर्बल पक्ष ही कहा जायेगा कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत-जीवन की (प्रत्यक्ष) जानकारो आत्मकथा के रूप में नहीं दी है। परिणामस्वरूप कवियों के जीवन प्रेरक प्रसङ्गों की जानकारी के लिए हमें उनकी कान्य की अन्तर्धारा पर ही निर्भर रहना पड़ता है। बनारसीदास ने इस लीक से हट 'स्व-चरित' को 'विख्यात' करने के की है। यह इच्छा ( आत्मचरित ) अर्द्धकथानक के रूप में आयो है। 'संरक्षण-कवि' होने के नाते उनमें अपने 'चरित' को लिखने की प्रेरणा जागी हो तो कोई आश्चर्य नहीं । उन्होंने जैसा 'सूना' और 'विलोका' वही कह दिया है । इस 'पूरब दसा चरित्र' में 'गुण-दोष' को भी निश्छल भाव से कहा गया है । यह सारा कथन 'स्थूल-रूप' में हा है ।
'अर्द्धकथानक' के दो पक्ष हैं-व्यक्ति-पक्ष और समाज-पक्ष । व्यक्ति-पक्ष में कवि ने अपने जीवन घटनाओं को निरावृत रूप में रखा है। चूंकि कथन के लिए उन्होंने 'थूल रूप' को ही तराजोह दो हैं, इसलिए उसमें आत्म-गोपन और
'अर्द्ध-कथानक' मध्यकाल की विशिष्ट कृति हैं-विशिष्ट इस दृष्टि से है कि इसने रचनाकारों में आत्म-चरित लिखने की प्रवृत्ति का श्रीगणेश किया। आत्मचरित लेखन इतिहास पुरुषों का क्षेत्र नहीं रह गया। भारतीय कवि इस विधा से उस समय अनभिज्ञ होंगे-ऐसा तो नहीं कहा जा सकता पर उनमें आत्म-चरित लेखन के प्रति संकोच भाव हो सकता है। इस संकोच को तोड़ने का काम 'अर्द्धकथानक' करता है। 'अर्द्धकथानक' में सीधी-सपाट तथ्य-बद्ध शैली को अपनाया गया है जिसमें दृश्य-गतिशीलता है-संवेदन उद्वेग नहीं। आज भले ही यह रचना-विधि आदर्श न हो पर प्रारम्भिक कृति के लिए आदर्श ही मानी जायेगो ।
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