________________
४३४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड भयभीत हुआ और दौड़ता हुआ एक कुएं में गया। जिसकी दीवाल में एक उगी टहनी को उसने पकड़ लिया । ऊपर हाथी, चार दिशाओं में सर्प, नीचे अजगर तथा टहनी को दो चूहे काट रहे थे, पास ही वटवृक्ष पर मधुमक्खियों का छत्ता था। हाथी ने उसे हिलाया और छत्ते से मधुकण चू पड़ा जो पंथी के मुंह में जा पहुँचा। उस आनन्द में वह घोर दुःखों को भूल गया । वस्तुतः यह मधु का स्वाद ही सांसारिक सुख है। पथिक जीव का प्रतीक है हाथी अज्ञान का प्रतीक है। चहा संसार का प्रतीक है। सपं गति का प्रतीक है। मक्खियाँ व्यक्तियों का प्रतीक है। अजगर विनोद का प्रतीक है। मधकण सांसारिक क्षणसुख का प्रतीक है। यह प्रतीक प्रयोग आज भी जैन मंदिरों में सचित्र मिलता है, अत्यन्त लोकप्रिय है।
आगे कवि ने पंचेन्द्रिय बेलि नामक कृति में घट को प्रतीकार्थ में व्यवहृत किया है। घट प्रतीक है शरीर अथवा आत्मा का । अशुचि घट होने पर तप-जप तथा तीर्थ आदि करना वस्तुतः निस्सार ही है । कवि ने यहाँ घट की निमलता पर बल दिया ।
प्रतीकार्थ काव्यसृजन करने में कविवर बूचराज का महत्त्वपूर्ण स्थान है । पंथिगोत की भांति इन्होंने भी समूचा काव्य ही प्रतीकार्थों में रचा है । टंडाणा टांड शब्द से बना है जिसका अर्थ है व्यापारियों का चलता हुआ समूह । यह विश्व भी प्राणियों का समूह है अस्तु तंडाणा संसार का प्रतीक है। इस काव्य में प्राणोमात्र को संसार से सजग रहने को कहा गया है।
मुनि विनयचन्द्र विरचित चूनड़ी काव्य भी प्रतीकात्मक रचना है। इसमें जैन शासन के विभिन्न सिद्धान्त रूपी बेल बूटे प्रकाशित हैं जिसे रंगरेज रूपी पति ने सभाला है । यह प्रयोग भी कवि द्वारा अभिनव खोज है ।
सोलहवीं शती के रससिद्ध कवि हैं ठकुसी । आपकी पंचेन्द्री बेलि नामक रचना भी प्रतीकात्मक काव्य है । बेलि वस्तुतः वासना का प्रतीक है । इस शती में प्रतीक प्रयोगों की अपेक्षा समूची कृति ही प्रतीकात्मक रची गई हैं।
पण्डित भगवतीदास सत्रहवीं शती के विद्वान् कवि हैं। मनकरहारास आपका प्रतीक काव्य ही है। इसमें मन को करहा अर्थात् ऊंट को चित्रित किया गया है, इसका स्रोत अपभ्रंश के मुनिवर रामसिंह से गृहीत हुआ है। उन्होंने पाहुड़ दोहा में करहा मन के रूप में उपमान रूप में गृहीत किया है। मनकरहारास में संसाररूपी रेगिस्तान में मन रूपो करहा के भ्रमण की रोचक कहानी कही गई है।
सत्रहवीं शती के दूसरे समर्थ कवि है भट्टारक रत्नकीति जी। आपने एक पद में गिरिनार शब्द का प्रतीकात्मक सपक्ष प्रयोग किया है। जैन कथानकों में तीर्थकर नेमिनाथ विषयक प्रसङ्ग में गिरिनार शब्द का व्यवहार हुआ है। जो वैराग्य स्थली के अर्थ में स्वीकृत हो गया है। चिन्तामणि शब्द का प्रतीकात्मक प्रयोग कविवर कुशल लाभ विरचित गौडी पार्श्वनाथ स्तवन नामक काव्य से परम्परानुमोदित हुआ है। चिन्तामणि का प्रयोग मनोकामना के उद्देश्य से हिन्दी में आरम्भ से ही हुआ है । विशेषकर हिन्दी भक्तिकालीन महात्मा तुलसीदास तथा सूरदास द्वारा चिन्तामणि शब्द का सफलतापूर्वक प्रयोग हुआ है।
इस काल के विद्वान कवि बनारसीदास जैन द्वारा प्रतीकात्मक प्रयोग द्रष्टव्य है। आपने नट शब्द का प्रतीक प्रयोग प्रचुरता के साथ किया है । जिसका अर्थ है आत्मा जो-जो कर्मानुसार नानारूप धारण करती है जिस प्रकार नट विविध स्वांग करता है। समयसार नामक कृति में कविवर ने अनेक प्रतीकों का सपक्ष प्रयोग किया है। कविवर यशोविजय उपाध्याय विरचित आनन्दघन अष्टपदी नामक काव्य में पारस शब्द प्रतीक रूप में व्यवहत है और उसका प्रतीकाथं है सद्संगति । कविवर हर्षकीर्ति द्वारा रचित पंचगतिबेलि पूरा हो प्रतीक काव्य है जिसमें इन्द्रियों के विजय आसक्तियों का विशद उल्लेख है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org