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४२४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
अनेकरदर्सवृत्य नृत्यसंगीत पोषितं । तमिवोत्तुंगशृंगाग्र नृत्यङ्गायत्सुरागर्न । सुवृत्तदीर्घसंचारि कररुद्धदिगन्तरं । तमिवात्यायति स्थूल स्फुरद्भोग भुजंगमं ।। ऐशान धारित स्फीत धवला तप वारणं। तमिवोध्वस्थिताभ्यर्ण संपूर्णशशिमण्डलं ॥ चामरेन्द्रभुजोत्क्षिद्रं चलच्चामरहारिणं । तं यथाचमरी क्षिप्त बालव्यञ्जन वीजितं । ऐरावतं समारोप्य जिनेन्द्रं तस्य मण्डन । देवैः सह गता प्राप्त मंदरं स पुरन्दरः ।।
आचार्य जिनसेन के शब्दों में ही अन्यत्र :
सौधर्मेन्द्रस्तदारुढो गजानीकाधिपं गजं । ऐरावतं विकूर्वाणमाकाशाकारवद्वपुः ॥ प्रोदंष्ट्रांतर विस्फारिकरास्फारितपुष्करं। प्रोद्वंशांकुरमध्योद्यद् भोगीन्द्रमिव भूधर ॥ कर्णचामरशंखांक कक्षनक्षत्रमालिनं । बलाका हंस विद्युद्भिरिव तातं यहत्यथं ॥
आरूढ़ वानरेणेन्द्राणामिन्द्राणां निबहैर्युतः । जन्मक्षेत्रं जिनस्यासौ पवित्रं प्राप्तयाम् सुरैः ।। अपभ्रंश के विख्यात कवि बिबुध श्रीधर (सं० १९८९) के शब्दों में ऐरावत की अलंकृति पूर्ण सुन्दर छबि का रसास्वादन कीजिए :
चित्तिओ महाकरीन्दुं दाणं पीणियालि वंदु । सोवि तक्खणे पहुत्तु चारु लक्खामि जुनु । लक्ख जोयणप्पमाणु कच्छमालिया समाणु । भूसणं सुभासमाजु सीयराइ मेल्लमाणु । उद्ध सुंड धावमाणु णीरही व गज्जमाणु । दन्त दोत्ति दीवयासु दिग्गइदं दिन तासु । साथरब्भ कूर भासु पूरियामरेसरासु। कुम्भछित्त वोम सिंगु कण्णवाय धूव लिंगु । देवया मणोहरंतु सामिणो पुरो सरं तु । तं निएवि हरि आणंदु करि तहि आरुहियउ जावेहिं ।
अवर वि अमर पडिय उमर चलिय सपरियण ताहि ॥ हिन्दी के अज्ञात कवि को ऐरावत-छबि का रसपान कीजिए जो इस लेख का मूल लक्ष्य है :छप्पय छन्द-जोजन लच्छ रचौ अरापति वदनु एक सौ बस रदधार ।
दंत-दंत पर एक सरोवर सुरपति पद्मनि पञ्च सतार ॥ (१२५) पद्मनि पदम पच्चीस विराजै दल राजै वसु सत निरधार । कोटि सत्ताईस दल दल ऊपर रचै अपछरा नचै अपार ॥ १ ॥ हाव भाव विभ्रम विलास श्रुत खड़ी अगरि गावै गंधार । ताल मृदंग किकिनी कटि पर पग नेवर बाजै झंकार ॥ नैन बाँसुरी मुख खंजरी चंग उपंग बजै सब नार ॥ कोटि सत्ताईस० २॥ सीस फूल सीसन के ऊपर पग नुपुर भूपर सिंगार । केस कुमकुम अगर अगरजा मलया सुभग ल्याइ घनसार ॥ चलनि हँसनि बोलनि चितवनि करि रति के रूप किया परिहार ॥ कोटि०३॥ हीअ आसन सुखकीय पासना मुख फूल कमिलिनी की उनहार । अंग उपंग कांति अति लखि करि मन मथती असनान की उनहार ॥ इन्द्र विन्द्र सबके मन मोहै सोहै सब लच्छिन सुभ सार ॥ कोटि. सत्ताईस ४॥
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